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श्रमण-श्रमणी
३३१ अपना ५००-५०० का शिष्य-परिवार लेकर पहले से ही अष्टापद की ओर चले । कोडिन्न-सपरिवार अष्टापद की पहली मेखला तक पहुँचा। आगे जाने की उनमें शक्ति नहीं थी। दूसरा दिन्न-नामक तापस सपरिवार दूसरी मेखला तक पहुँचा । सेवाल-नामक तापस अपने शिष्यों के साथ तीसरी मेखला तक पहुँचा । अष्टापद में एक एक योजन प्रमाण की आट मेखलाएँ हैं।
इतने में गौतम स्वामी को आता देखकर उन्हें विचार हुआ कि "तप से हम लोग तो इतने कृश हो गये हैं, तो भी हम ऊपर चढ़ नहीं सके' तो यह क्या चढ़ पायेगा ?"
वे यह विचार ही कर रहे थे कि, गौतम स्वामी जंघाचरण की लब्धि से सूर्य की किरणों का आलंबन करके शीघ्र चढ़ने लगे। उनकी गति देखकर उन तीनों तपस्वियों के मन में विचार हुआ कि, जब गौतम स्वामी ऊपर से उतरें तो मैं उनका शिष्य हो जाऊँ ?"
उधर गौतम स्वामी ने अष्टापद पर्वत पर जाकर भरत चक्री द्वारा निर्मित ऋषभादिक प्रतिमाओं की वंदना और स्तुति की।
जब गौतम स्वामी लौटे तो उन तापसों ने कहा-"आप मेरे गुरु हैं और मैं आप का शिष्य हूँ।" यह सुनकर गौतम स्वामी ने कहा-"तुम्हारे हमारे सबके गुरु जिनेश्वर देव हैं।" उन लोगों ने पूछा-"क्या आप के भी गुरु है ?' गौतम स्वामी ने उत्तर दिया-"हाँ ! सुर-असुर द्वारा पूजित महावीर स्वामी हमारे गुरु हैं।"
उनके साथ लौटते हुए गोचरी के समय गौतम स्वामी ने उनमे पूछा-"भोजन के लिए क्या लाऊँ ?" उन सबने परमान्न कहा। गौतम स्वामी अपने पात्र में परमान्न लेकर लौट रहे थे तो १५०३ साधुओं को शंका हुई कि इसमें मुझे क्या मिलेगा ? पर, गौतम स्वामी ने सबको उसी में से भर पेट भोजन कराया।
उस समय सेवालभक्षी ५०० साधुओं को विचार हुआ कि, यह मेरा
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