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________________ श्रावक-धर्म ३६५ यंत्र पीडा निर्बाचनमसतीपोषणं तथा दव दानंसरः शोष इति पंचदश त्यजेत ॥२॥ १. अंगार कर्म-लकड़ी भस्म करके कोयला बनाकर बेचना, अथवा लुहार, कलाल, कुम्भार, सोनार, भड़y जा आदि का कर्म अंगार.. कर्म कहा जाता है । अर्थात् जो जीविका मुख्यतः अंगार ( अग्नि) से चले, वह अंगार-कर्म है । ऐसी आजीविका मैं ६ जीविनिकाय का बध होता है । अतः ऐसे व्यवसाओं को गृहस्थ को त्यागना चाहिए। २. वन-कर्म-कटा हुआ अथवा बिना कटा हुआ वन बेचे; फल, पत्र, फूल, कंदमूल, तृण, काष्ठ, लकड़ी, वंशादि बेचे अथवा हरी वनस्पति बेचे। ३-साड़ी-कर्म-गाड़ी, बहल, सवारी का रथ, नाव, जहाज, हल, चरखा, घानी, चक्की, ऊखल, मूसल आदि बनाकर बेचे । ४. भाटी-कर्म-गाड़ी, बैल, ऊँट, भैंस, गधा, खच्चर, घोड़ा, नाव, आदि पर माल ढोकर भाड़े से आजीविका चलाये। ५. फोड़ो-कर्म-आजीविका के लिए कूप, बाबड़ी आदि खोदावे, हल चलाये, पत्थर फोड़ावे, खान खोदाये आदि स्फोटिक कर्म हैं । __ वाणिज्य सम्बन्धी ५ अतिचार १. दंतवाणिज्य-हाथीदाँत, हंस आदि पक्षी का रोम, मृग आदि पशुओं का चर्म, चमरी-मृग की पूँछ, साबर आदि जानवरों की सींग, शंख, सीप, कौड़ी आदि का व्यापार करना । २. लाक्षावाणिज्य-लाख आदि हिंसक व्यापार । लाख में त्रस जीव बहुत होते हैं। उसके रस में रुधिर का भ्रम होता है। धावड़ी में त्रस जीव उत्पन्न होते हैं । नील को भी जब सड़ाते हैं, तो उसमें बहुत १-प्रवचनसारोद्धार पूर्वार्ध पत्रा ६१-२ से ६२-२ में कर्मादानों पर विचार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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