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________________ २१६ तीर्थङ्कर महावीर कषाय व्युच्छिन्न हो गये हैं और उदय में नहीं आते हैं। यह नोइन्द्रिययापनीय है।" सोमिल-“हे भगवन् ! आपका अव्याबाध क्या है ?" भगवान्–“हे सोमिल ! बात, पित्त, कफ और सन्निपात जन्य अनेक प्रकार के शरीर-सम्बन्धी दोष हमारे उपशान्त हो गये हैं और उदय में नहीं आते । यह अव्याबाध है ।” सोमिल—"हे भगवान् ! प्रासुक विहार क्या है ?” भगवान्- "हे सोमिल ! आराम, उद्यान, देवकुल, सभा, प्याऊ, स्त्री, पशु और नपुंसक-रहित बस्तियों में निर्दोष और एक एषगीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक प्राप्त करके मैं विहरता हूं। यह प्रासुक विहार है।" सोमिल-"सरिसब आपको भक्ष्य है या अमक्ष्य ?" भगवान्-"सरिसब हमारे लिए भश्य भी है अभक्ष्य भी है । सोमिल- "हे भगवन् ! यह आप किस कारण कहते हैं कि, सरिसव भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ?" भगवान्-"सोमिल ! ब्राह्मण नय-शास्त्र-मैं सरिसव दो प्रकार का कहा गया है। एक तो मित्र-सरिसव (समानवयस्क) और दूसरा धान्य-सरिसव । "मित्र-सरिसव तीन प्रकार के होते हैं-१सहजात ( साथ में जन्मा हुआ), २ सहवर्द्धित ( साथ मैं बड़ा हुआ) और ३ सहप्रांशुक्रीडित ( साथ में धूल में खेला हुआ)। ये तीन प्रकार के सरिसव श्रमण-निग्रन्थों को अभक्ष्य हैं। "जो धान्य-सरिसव है वह दो प्रकार का कहा गया है-१ शस्त्र-परिणत और २ अशस्त्र-परिणत । ., "उनमें अशस्त्र-परिणत श्रमणों को अभक्ष्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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