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सोमिल का श्रावक होना
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इस वाणिज्यग्राम में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था । वह बड़ा ही धनाढ्य और समर्थ था तथा ऋग्वेदादि ब्राह्मण-ग्रंथों में कुशल था । वह अपने कुटुम्ब का मालिक था । उसे ५०० शिष्य थे ।
भगवान् महावीर के आगमन की बात सुनकर सोमिल का विचार भगवान् के निकट जा कर कुछ प्रश्न पूछने का हुआ । उसने सोचा - "यदि वह हमारे प्रश्नों का उत्तर दे सके तो मैं उनकी वंदना करके उनकी पर्युपासना करूँगा और नहीं तो मैं उन्हें निरुत्तर करके लौहूँगा ।”
ऐसा विचार करके स्नान आदि करके वह १०० शिष्यों को साथ लेकर वाणिज्यग्राम के मध्य से निकल कर भगवान् के निकट गया ।
भगवान् से थोड़ी दूर पर खड़े होकर उसने भगवान् से पूछा - "हे भगवन् ! आपके सिद्दान्त में यात्रा, यापनीय, अव्याचाघ, और प्रासुक विहार है ?"
भगवान् - " हे सोमिल ! मेरे यहाँ यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार भी है ।"
सोमिल - "हे भगवान् ! आपको यात्रा क्या है ?"
और
भगवान् - "हे सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान आवश्यकादि योगों में जो हमारी प्रवृत्ति है, वह हमारी यात्रा है ।" सोमिल — "हे भगवन् ! आपका यापनीय क्या है ?"
भगवान् - " हे सोमिल ! यापनीय दो प्रकारके हैं—१ इन्द्रिय यापनीय और २ नोइन्द्रिय यापनीय ।"
सोमिल - "हे भगवन् ! इन्द्रिय यापनीय क्या है ?"
भगवन् – " हे सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय-ये पाँचों उपघात रहित मेरे बशमें वर्तन करती हैं । यह मेरा इन्द्रियापन है । "
सोमिल- - "हे भगवन् ! नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ?" भगवन् – " हे सोमिल ! मेरा क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार
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