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तीर्थंकर महावीर
( १० ) स्वाध्यायतप
स्वाध्यायतप की विवेचना उत्तराध्ययन में इस रूप में की गयी हैवायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियणा । अणुहा धम्म कहा, सञ्झाओ पञ्चहा भवे ॥ ३४ ॥
१ ) शास्त्र की वाचना ( २ ) प्रश्नोत्तर करना ( ३ ) पढ़े हुए की अनुवृत्ति करना ( ४ ) अर्थ की अनुप्रेक्षा ( चिंतन ) करना ( ५ ) धर्मोपदेश यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय-तप है ।
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( ११ ) ध्यानतप
उत्तराध्ययन में गाथा आती है
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अट्टरुद्दाणि वञ्जिता, भाएञ्जा सुसमाहिए । धम्मसुकाइ भाणाई, झाणं तं तु वुहा वए ॥ ३५ ॥
समाधि युक्त मुनि आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करे । इसे विद्वान लोग ध्यान तप कहते हैं ।
नवतत्त्वप्रकरण सार्थ ( पृष्ठ १२३ ) में शुभध्यान दो प्रकार के कहे गये हैं- ( १ ) धर्म ध्यान ( २ ) शुक्लध्यान । इनके अतिरिक्त ४ प्रकार के आर्तध्यान और ४ प्रकार के रौद्रध्यान हैं। ये संसार बढ़ाने वाले हैं । धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान के भी ४-४ प्रकार हैं ।
( १२ ) कायोत्सर्गतप
कायोत्सर्ग - तप की परिभाषा इस प्रकार की गयी हैसयाणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कामस्स विउसग्गो, छट्टो सो परिकित्तिश्रो ॥ ३६ ॥ सोते-बैठते अथवा खड़े होते समय भिक्षु काया के अन्य व्यापारों को त्याग देता है । उसे कायोत्सर्ग - तप कहते हैं ।
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