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________________ श्रावक-धर्म ४१६ अथवा राजा की रानी के साथ अनाचार करने से अथवा शासन के उपघातक पाप के दण्ड के रूप में १२ वर्षों तक गच्छ से बाहर निकल कर, वेष त्याग कर महाशासन प्रभावना करने के पश्चात् पुनः दीक्षा लेकर गच्छ मैं आना । ' ( ८ ) विनयतप विनयतप के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में पाठ है: ------ अभुट्टाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिश्र ||३२|| गुरु आदि को अभ्युत्थान देना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरु की भक्ति करना और अंतःकरण से उनको सेवा करना विनय-तप है । प्रकरण सार्थ ( मेहसाणा, पृष्ठ १३० ) में ज्ञान, दर्शन, चरित्र, मन, वचन, काया और उपचार विनय के ७ प्रकार बताये गये हैं । ( ६ ) वैयावृत्य वैयावृत्य की परिभाषा उत्तराध्ययन में इस प्रकार दी है:श्रायरियमाईए, वेयावच्चम्मि दसविहे । श्रासेवणं जहाथामं, वेयावच्चं तमाहियं ॥ ३३ ॥ वैयावृत्य के योग्य आचार्य आदि दस स्थानों की यथाशक्ति सेवाभक्ति करना वैयावृत्यतप कहलाता है । नवत्त्वप्रकरण सार्थ ( पृष्ठ १३० ) में इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, स्थविर, ग्लान, शैक्ष, सधार्मिक, कुल गण, संघ इन दस का आहार, वस्त्र, वसति, औषध, पात्र, आज्ञापालन आदि से भक्ति बहुपान करना वैयावृत्य है । * १. - नवतत्त्वप्रकरण सार्थ, पृष्ठ १२६ । २ - नवतत्वप्रकरण, सुमंगला टीका, पत्र ११२-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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