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तीर्थंकर महावीर ने पूछा- "तुम यह कैसे कहते हो कि जो तुम जानते हो, उसे नहीं जानते
और तुम जिसे नहीं जानते उसे तुम जानते हो ?" __माता-पिता के प्रश्न पर अतिमुक्तक ने उत्तर दिया--"मैं जानता हूँ कि जिसका जन्म होता है, वह भरेगा अवश्य । पर, वह कैसे, कब और कितने समय बाद मरेगा, यह मैं नहीं जानता। मैं यह नहीं जानता कि किन आधारभूत कर्मों से जीव नारकीय, तिर्यच, मनुष्य अथवा देवयोनि में उत्पन्न होते हैं। पर, मैं जानता हूँ कि अपने ही कर्मों से जीव इन गतियों को प्राप्त होता है । इस प्रकार मैं सही-सही नहीं बता सकता कि, मैं क्या जानता हूँ और मैं क्या नहीं जानता हूँ। उसे मैं जानना चाहता हूँ। इसलिए गृहस्थ-धर्म का त्याग करना चाहता हूँ और इसके लिए आपकी अनुमति चाहता हूँ।"
पुत्र की ऐसी प्रबल हच्छा देखकर माता-पिता ने कहा-“पर, हम कम-से-कम एक दिन के लिए अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बैठा देखना चाहते हैं।"
माता-पिता की इच्छा रखने के लिए अतिमुक्तक एक दिन के लिए गद्दी पर बैठा और उसके बाद बड़े धूम-धाम से भगवान् के पास जाकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । अपने पुत्र की दीक्षा में भाग लेने के लिए अति-मुक्तक के पिता विजय भी सपरिवार गये और उन लोगों ने भी भगवान् की वंदना की।
अतिमुक्तक ६ वर्ष की उम्र में साधु हुआ । इस सम्बन्ध में भगवतीसूत्र की टीका में आता है :
"कुमार समणे' त्ति षड्वर्षजातस्य तस्य प्रव्रजित्वात् , आह च-"छव्वरिसो पधारो निग्गंथं रोइऊण पावयणं" ति, एतदेव चाश्चर्यमिह, अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति,
१-अंतगडदसाओ-एन० पी० वैद्य-सम्पादित पृष्ठ ३४-३७ आत्मप्रबोध-पत्र १२३-२-१२५-२
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