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भक्त राजे ध्वज-चिह्न बताया गया है। दूसरी बात यह कि जैन-ग्रंथों में यक्षों को पुत्र-दायक देव कहा माना गया है। अतः पुत्र-कामना से पूजा जाने बाला यह बहुपुत्तीय चैत्य निश्चय ही यक्षायतन था।
अब हमें यह देखना है कि बहुपुत्तीय कौन यक्ष है ? इसका उल्लेख नैन-शास्त्रों में आता है, या नहीं। वृहत्संग्रहणी सटीक में निम्नलिखित यक्ष गिनाये गये हैं :
१ पूर्णभद्रा; २ मणिभद्रा; ३ श्वेतभद्राः; ४ हरिभद्राः; ५ सुमनोभद्राः; ६ व्यतिपाकभद्राः, ७ सुभद्राः, ८ सर्वतोभद्राः, ९ मनुष्यपक्षाः, १० धना धिपतयः, ११ धनाहाराः, १२ रुपयक्षाः, १३ यक्षोत्तमाः
इन यक्षों में पूर्णभद्र और मणिभद्र यक्षेन्द्र हैं और यक्षेन्द्र पूर्णभद्र की ४ महारानियों में एक बहुपुत्रिका भी थीं। ___ अतः वैशाली का यह बहुपुत्तीय चैत्य बहुपुत्रिका ( यक्षिणी ) चैत्य रहा होगा।
भगवतीसूत्र में भी विशाखा नगरी में बहुपुत्तीय-चैत्य का उल्लेख मिलता है। भगवतीसार के लेखक गोपालदास जीवाभाई पटेल ने अपनी पादटिप्पणि में विशाखा के स्थान पर विशाला कर दिया। पर यह उनकी
१-श्रीवृहत्संग्रहणीसूत्र ( गुजराती-अनुवाद सहित ] पृष्ठ १०८ २-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३६० ३-वृहत्संग्रणी सटीक, पत्र २८-२ ४-दो जक्खिदा पन्नत्ता, तं०-पुन्नभद्दे चेव मणिभहे
-ठाणांग, ठाणा २, उद्देसा ३, सूत्र ६४, पत्र ८५.१ ५-पुण्णभद्दस्स णं जक्खिदस्स जक्खरन्नो चत्तारि अग्गमहिसियो पं तं०-पुत्ता, बहुपुत्तिता, उत्तमा, तारगा
-ठाणांग सूत्र, ठा० ४, उद्देशा १, सूत्र २७६ ६- भगवती सूत्र सटीक, शतक १८. उद्देशा २, सूत्र ६१८, पत्र १३५७ ७-भगवतीसार पृ २३६
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