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तीर्थकर महावीर
शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥ इति अथवा
श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थ श्रद्धानं निष्ठां नियन्तीति श्राः, तथा वपन्ति गुण वत्सप्तक्षेत्रेषु धनबोजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति-क्लिष्टकर्म्मर जो ।
विक्षिपन्ततीति कास्ततः कर्मधारये श्रावकः इति भवति । यदाहः
शृद्धालुतां श्राति पदार्थ चिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादथापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥ अर्थात् जो जिन-वचन को सुनता है, उसे श्रावक कहते हैं । कहा है कि, प्राप्त की हुई दृष्टि आदि विशुद्ध सम्पत्ति ( सम्यक् दृष्टि ) साधु जन के पास से जो प्रति दिन प्रभात में आलस्य रहित उत्कृष्ट समाचार ( सिद्धान्त ) जो ग्रहण करे उन्हें जिनेन्द्र का श्रावक कहते हैं । अथवा जो पचाता है, तत्त्वार्थ पर श्रद्धा से निष्ठा लाता है उसके लिए 'श्री' शब्द है और गुण वाले सप्त क्षेत्रों में जो धन रूप बीज बोता है तथा क्लिष्ट कर्म रूप रज फेंक देता है, उससे कर्मधारय समास करने से श्रावक शब्द सिद्ध होता है । कहा है:
पदार्थ के चिंतन से श्रद्धालुता को दृढ़ करके, निरन्तर पात्रों में धन चोता है, और सत्साधुओं की सेवा करके पापों को शीघ्र फेंकता है अथवा दूर करता है उसको ज्ञानी श्रावक कहते हैं ।"
भगवान् महावीर के संघ में १५९००० ३ श्रावक थे | ठाणांगसूत्र में
१. ठाणांगसूत्र सटीक, पत्र २८२ -१ तथा २८२-२ । २, ठाणांगसूत्र टीका के अनुवाद सहित, भाग २, ३ समणस्स णं भगवतो महावीरस्स संख सयग एगा सयसाहसीओ उठि...
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पत्र ५४१-१ ।
पामोक्खाणं समणी बासगाणं
- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, सूत्र १३६, पत्र ३५७ ।
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