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श्रावक-धर्म
भगवान् महावीर ने अपने छमस्थ काल में प्रथम वर्षावास में ही हस्तिग्राम में दस महास्वप्न देखे थे। उनमें ९ का फल तो उत्पल-नामक नैमित्तिक ने बता दिया था पर चौथे स्वप्न.......
दाम दुगं च सुरभिकुसुममयं ।' का फल वह नहीं बता सका था। इसका फल स्वयं भगवान् महावीर ने बताया।
हे उप्पला ! जं नं तुमं न याणासि तं नं अहं
दुविहमगाराणगारियं धम्भं पनवेहामित्ति ।' __-हे उत्पल ! मैं अगार और अनगरिय दो धर्मों की शिक्षा दूंगा। ( देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ १७३ ) यह 'अणगारिय' तो साधु हुए और घर में रह कर जो धर्म का पालन करे उसे जैन-धर्म में श्रावक अथवा गृही कहा जाता है ।
तीर्थङ्कर के चतुर्विध संघ में १ साधु, २ साध्वी, ३ श्रावक, ४ श्राविकाएँ होती हैं। ये श्रावक गृही होते हैं । श्रावक शब्द की टीका करते हुए ठाणांग में आता है ।
शणवन्ति जिनवचन मिति श्रावकाः, उक्तञ्च अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्ध सम्पत्, परं समाचार मनुप्रभातम् । १. पावश्यकचूणि, पूर्वार्द्ध, पत्र २७४ । २. वही, पत्र २७५ ।। ३. च उबिहे संघे पं० तं० समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ। ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा ४, उ०४, सूत्र ३६३, पत्र २८१-२ ।
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