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४२-वाँ वर्षावास
छठे आरे का विवरण वर्षा चातुर्मास्य के बाद भी भगवान् कुछ समय तक राजगृह मैं ठहरे रहे । इस बीच अव्यक्त, मण्डिक, मौर्यपुत्र और अकम्पित मासिक अनशनपूर्वक गुणशिलक चैत्य में निर्वाण को प्राप्त हुए।
इसी बीच एक दिन इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् से पूछा-"हे भगवन् ! जम्बूद्वीप-नामक द्वीप में स्थित भारतवर्ष को इस अवसर्पिणी में दुःखम-दुःखम नामक छठे आरे के अन्त में क्या दशा होती ?”
भगवान्–“हे गौतम ! हाहाभूत (जिस काल में दुःखी लोग 'हाहा' शब्द करें ), भंभाभूत (जिस काल में दुःखात पशु 'भाँ-भाँ' शब्द करें ); कोलाहलभूत ( जिस काल में दुःखपीड़ित पक्षी कोलाहल करें ) वह काल होगा। काल के प्रभाव से अति कठोर, धूल मिली हुई, असह्य, अनुचित और भयंकर वायु तेमज संवर्तक वायु बहेगी । इस काल में चारों ओर भूल उड़ती होने से, रज से मलीन और अन्धकारयुक्त प्रकाशरहित दिशाएँ होंगी। काल की रुक्षता से चन्द्र अधिक शीतलता प्रदान करेगा
और सूर्य अत्यन्त तपेगा । बारम्बार अरसमेघ, विरसमेघ, क्षारमेघ, खट्टमेघ, अग्निमेघ, विज्जुमेघ, विषमेघ, अशनिमेघ, बरसेंगे'। अपेय जलकी वर्षा होगी तथा व्याधि-रोग वेदना उत्पन्न करनेवाले पानी वाला, मन को जो न रुचे ऐसे जलवाला, मेघ बरसेगा।
१ भगवतीसूत्र की टीका में इन मेघों के सम्बन्ध में इस प्रकार टीका की गयी है:'अरसमेह' त्ति अरस्त-अमनोज्ञा मनोज्ञरसवर्जितजला ये मेघास्ते
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