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मत्स्य-मांस परक अर्थ अागम विरोधियों की देन १८७
पूज्यपाद देवनंदि पर इस तरह मत रखने वाले सुखलाल को उनका आश्रय लेने की क्या आवश्यकता थी! पृज्यपाद पर यह मत केवल सुखलाल का नहीं ही है।
हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने भी (देवचंद लालभाई ग्रंथांक ७६) तत्त्वार्थ की भूमिका में यह प्रश्न उठाया है कि, जब तत्त्वार्थसूत्र पर स्वोपज्ञ भाष्य पहले से वर्तमान था, तो पृज्यपाद ने उससे भिन्न रूप में टीका क्यों की। इसका उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा है :
"......it should not be forgotten that not only do many statements therein not support the Digambar doctrins but they directly go aginst their very system. So as there was no alternative, he took an independent course and attempted to interpret the original sutras probably after alternating them at times so as to suit the Digambar stand point......"
( यह भूल न जाना चाहिए कि भाष्य के कितने ही स्थल दिगम्बरसिद्धान्तों का समर्थन नहीं करते थे और कितने ही स्थलों पर उनके विरुद्ध पड़ते थे। उनके पास और कोई चारा नहीं था। अतः उन्होंने स्वतंत्र रूप से टीका करने का प्रयास किया और जहाँ दिगम्बर-दृष्टि से उसका मेल नहीं बैठता था वहाँ परिवर्तन भी किये )
- तत्त्वार्थ की जो सर्वार्थसिद्धि-टीका ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुई है, उसमें उसके सम्पादक फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री ने लम्बी-चौड़ी भूमिका लिखी है । उस भूमिका के सम्बंध में उक्त ग्रंथमाला के सम्पादक हीरालाल तथा आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने लिखा है :
१-तत्वार्थसूत्र, खंड २. भूमिका, पृष्ठ ४८
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