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तीर्थकर महावीर माँ के कहने पर चंद्रयश स्वयं अपने छोटे भाई से मिलने गया और छोटे भाई नमि को गद्दी पर बैठाकर स्वयं उसने दीक्षा ले ली।
नमि अब दोनों राज्यों का पालन करने लगे। एक बार नमि को ज्वर हुआ। सभी चिकित्साएँ बेकार गयीं और वैद्यों ने रोग को असाध्य कह दिया। - केवल चंदन के रस से राजा को कुछ शांति मिलती। अतः उसकी शनियाँ चंदन घिसने लगी। चंदन घिसने से रानियों के कंकण से जो खटखट शब्द होता । उससे राजा को कष्ट होने लगा। यह जानकर रानियों ने एक छोड़कर अन्य कंकण उतार दिये । अब शब्द न होता सुनकर राजा को विचार हुआ कि शब्द तो सुनायी नहीं पड़ता । लगता है कि, प्रमादी रानियाँ चंदन घिस नहीं रही हैं। यह विचार जानकर मंत्री ने कहा--- "महाराज ! सबने कंकण उतार दिये हैं। केवल एक कंकण हाथ में होने से शब्द नहीं हो रहा है।"
अब राजा को विचार हुआ, बहुत समागम से दोष उत्पन्न होता है । अतः इस संसार का त्याग करके यदि अकेला रहना हो तो अति उत्तम । इस विचार से राजा ने निश्चय किया कि, यदि ज्वर समाप्त हो जाये तो मैं चरित्रग्रहण कर लूँ।" - विचार करते-करते राजा सो गया और राजा के पुण्य के प्रभाव से कार्तिक मास की पूर्णिमा की रात्रि को राजा का ६ महीने का ज्वर उतर गया ।
प्रातः होते-होते राजा ने स्वप्न देखा-"मैं मेरु-पर्वत के शिखर पर हूँ" इसी समय प्रातःकाल के बाजे आदि की ध्वनि से राजा की नींद खुल गयी।'
१-कुम्भकार-जातक में उसके प्रतिबोध की कथा भी भिन्न है। उसमें लिखा है एक सूनी दूकान से मांस का टुकड़ा लेकर एक चील उड़ी। गृद्ध आदि अन्य पक्षी उससे मांस छीनने के लिए, झपटे । उसने उसे छोड़ दिया। दूसरे ने ग्रहण किया, अब सब उस पर झपटे । यह देखकर नमि को विचार हुआ कि जो मांस का टुकड़ा ग्रहण करता है, उसे कष्ट होता है और जो उसका त्याग करता है, वही सुखी होता है। इसी प्रकार पाँच काम भोगों का परित्याग सुखद है।
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