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तीर्थंकर महावीर
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'तरण' मित्यादौ 'विउलकयवित्तिए' त्ति विहितप्रभूत जीविक इत्यर्थः, वृत्तिप्रमाणं चेदम् - श्रर्द्ध त्रयोदशरजतसहस्राणि, यदाह - " मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सयसहस्सा ।" "पवितिवाउए' ति प्रवृत्तिव्यापृतो वार्ताव्यापारवान् वार्तानिवेदक इत्यर्थः । ' तद्देवसि' ति दिवसे भवा दैवसिकी सा भासौ विवक्षिता-मुत्र नगरादावागतो विहरति भगवानित्यादिरूपा, देवसिकी चेति तदैवसिकी, श्रतस्तां निवेदयति । 'तस्स ण' मित्यादि श्रत्र 'दिण्णभतिभत्तवेयण' त्ति दत्तं भृतिभक्तरूपं वेतनं मूल्यं येषां ते तथा तत्र भृतिः - कार्षापणादिका भक्त च - भोजनमिति ।
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- औपपातिकसूत्र सटीक, पत्र २५
जिसे राजा
-उस कुणिक राजा के यहाँ एक ऐसा पुरुष नियुक्त था,
( कूणिक ) की ओर से बड़ी आजीविका मिलती थी । 'भगवान् कत्र कहाँ से विहार कर किस ग्राम में समवसृत हुए हैं, इस समाचार को जानने के लिए वह नियुक्त किया गया था । तथा भगवान् के दैनिक वृतांत का भी अर्थात् आज दिन भगवान् इस नगर से विहार कर इस नगर में विराज रहे हैं, इस प्रकार की उनकी दैनिक विहार-वार्ता का भी ध्यान रखता था । यह वृतांत राजा के निकट निवेदन करता था ।
वैशाली से युद्ध
भंभासार ने अपने जीते ही जी सेचनक हाथी, ' तथा देवदिन्न
१ – सेचनक हाथी का वृतान्त उत्तराध्ययन सूत्र नेमिचन्द्राचार्य की टीका पत्र ७-१, ७-२ ( अध्ययन १, गाथा १६ की टीका ) में दिया गया है ।
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