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________________ आनन्द ४२५ सैन्ये प्रत्याश्रयं दिव्यभोजनापादनम् क्षमम् । अचालीद् गृहिरत्नं च सत्रशालेव व जङ्गमा ॥' -जंगम अन्नशाला के समान और सेना के लिए हर एक मुकाम पर उत्तम भोजन उत्पन्न करने में समर्थ गृहपति रत्न । 'गाहावई' का यह कर्तव्य केवल चक्रवर्तियों के ही यहाँ रहा हो, ऐसी बात नहीं है। मांडलिक राजाओं के यहाँ भी 'गृपति' ऐसा ही काम किया करते थे । भगवतीसूत्र की टीका में लिखा है : गृहपतिः-माण्डलिको राजा तस्यावग्रहः-स्वकीयं मण्डल. मिति गृहपत्यवग्रहः __ गृहपति शासन का एक अंग होता था, यह बात पालि-साहित्य से भी सिद्ध है । जातक में एक स्थल पर राजदरबार के व्यक्तियों के नाम आये हैं उनमें आमात्य, ब्राह्मण, आदि के साथ गृहपति का भी नाम आता है। ऐसा ही उल्लेख दीघनिकाय में भी है उसमें भी आमात्य आदि के साथ गृहपति का उल्लेख है। जैन-ग्रन्थों में बस इतना ही उल्लेख मिलता है कि आनन्द गृहपति था । गोपालदास जीवाभाई पटेल ने एक प्रसंग का अशुद्ध अर्थ निकाल १-विषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १, सर्ग ४, श्लोक ४३ पा ६२-१ २-भगवतीसूत्र सटीक शतक १६, उद्देशा २, सूत्र ५६८ पत्र १२८८ ४-अमच्चा च ब्राह्मण गहपति श्रादयो च-- -खंड १, पष्ठ २६० तथा फिक-लिखित सोशल आर्गनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इंडिया' पृष्ठ १४२ ५-..'अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा......"ब्राह्मण महासाला नेगमा चेव जानपदा......... 'गहपति नेचयिका नेगमा चेब जानपदा.... दीघनिकाय (पालि) भाग १, पृष्ठ ११७ हिन्दी अनुवाद पृष्ठ ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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