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भक्त राजे
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उल्लेख दिव्यावदान ( पृष्ठ ५४४ ) तथा महावस्तु ( जोंस - अनूदित, भाग ३, पृष्ठ २०४ ) में भी है ।
डाक्टर जगदीशचन्द्र जैन ने ( लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया, पृष्ठ ३०२ ) वीतभय का दूसरा नाम कुंभारपक्खेव माना है और प्रमाण में आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र २७ दिया है । आवश्यकचूर्णि में धूल वाले प्रसंग में आता है ।
सिणवल्लीए कुंभारपक्खेवं नाम पट्टणं तस्स नामेणं जात ।
यहाँ सिणवल्ली शब्द की ओर डाक्टर महोदय ने ध्यान नहीं दिया । उद्रायण राजा की कथा उत्तराध्यन के १८ वें अध्याय में भी आयी है । वहाँ धूल की वृष्टि वाले प्रसंग में आता है :
सो य श्रवहरितो श्रणवराहि त्ति काउं सिणवल्लीए | कुम्भकारवेक्खो नाम पट्टणं तस्स नामेणं कयं ॥ — उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, पत्र २५५-२ । शय्यातरं मुनेस्तस्य कुम्भकारं निरागसम् । सासुरी सिनपल्यां प्राग निन्मे हृत्वा ततः पुरः ॥ २९८ ॥ तस्य नाम्ना कुम्भकार कृतमित्याह्वयं पुरम् ।
तत्र सा विदधे किंवा दिव्य शक्तेर्न गोचरः ॥ २१६ ॥
- उत्तराध्यन भावविजय की टीका, पत्र ३८७-२ । इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि, देव ने उपद्रव द्वारा वीतभय नष्ट करने के पश्चात शय्यातर कुम्भकार को सिणवल्ली पहुँचा दिया और सिणवल्ली का नाम कुम्भारपक्खेव पड़ा न कि वीतभय का ।
बहुत से स्थलों पर भूल से अथवा अज्ञानवश वीतमय के इस राजा का नाम उदायन मिलता है । पर उसका सही नाम उद्रायण था । मेरे पास हरिभद्र की टीका सहित आवश्यक निर्युक्ति की एक हस्तलिखित प्रति है । उसमें भी उद्रायण ही लिखा है । उद्रायणावदान तिब्बती मूल के साथ जोहानेस नोबेल का जर्मन अनुवाद प्रकाशित हुआ है । उसमें भी राजा
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