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भक्त राजे
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घोड़े पर आरूढ़ राजा वहाँ भी आया और उसने जब मरे हुए मृगों के निकट हो उस अनागार को देखा तो मुनि को देख कर वह भयग्रस्त हो गया । राजा अविलम्ब घोड़े से उतरा और मुनि के निकट जाकर उनकी वंदना करता हुआ क्षमायाचना करने लगा ।
उस अनागार ने राजा को कुछ भी उत्तर नहीं दिया। मुनि के उत्तर न देने से राजा और भी भयग्रस्त हुआ और उसने अपना परिचय चताते हुए कहा – “हे भगवन् ! मैं संजय - नामका राजा हूँ । आप मुझे उत्तर दें; क्योंकि कुपित हुआ अनागार अपने तेज से करोड़ो मनुष्यों को भस्म कर देता है । "
राजा के इन वचनों को सुनकर उस मुनि ने कहा - " हे पार्थिव ! तुझे अभय है। तू भी अभय देने वाला हो । अनित्य जीवलोक में तू हिंसा में क्यों आसक्त हो रहा है ?
"हे राजन् ! यह जीवन और रूप जिसमें तू मूर्छित हो रहा है विद्युत्सम्पात के समान अति चंचल है ! परलोक का तुझको बोध भी नहीं है ।
"स्त्री-पुत्र -मित्र और बांधव सब जीते के साथी हैं और मरे हुए के साथ नहीं जाते |
" हे पुत्र ! परम दुखी होकर मरे हुए पिता को लोग घर से निकाल देते हैं । इसी प्रकार मरे हुए पुत्र को पिता तथा भाई को भाई घर से निकाल देता है |
"फिर हे राजन उस व्यक्ति द्वारा उपार्जित वस्तुओं का दूसरे ही लोग उपभोग करते हैं ।
" मनुष्य तो शुभ अथवा अशुभ अपने कर्मों से ही संयुक्त परलोक में जाता है । "
उस अनागार मुनि के धर्म को सुनकर वह राजा उस अनागार के
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