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________________ ५७२ तीर्थंकर महावीर ठंडा और नीरस हो जाता है। इसलिए मूर्ख-रूपी मंच के वह तीसरे पाये हैं। "चौथे मूर्ख आप हैं। जब यहाँ मोर आने की कोई उम्मीद नहीं है, तो फिर मोरपंख यहाँ भला कैसे आयेगा ? और, यदि कोई मोरपंख यहाँ ले भी आया भी हो, तो हवा से उसे उड़ जाना चाहिए था ? इनकी जानकारी के बिना ही आप उसको लेने के लिए तैयार हो गये।" राजा ने सोचा-"यह कन्या चतुर है तथा सुन्दर है। मैं इससे विवाह क्यों न कर लूँ ?” बाद में उस राजा ने उस कन्या से विवाह कर लिया । एक बार उस नगर में विमलचंद्र-नामक आचार्य पधारे। राजा कनकमंजरी-सहित उनकी वंदना करने गया और दोनों ने श्रावक-धर्म स्वीकार कर लिया । मर कर वह कनकमंजरी स्वर्ग गयी । वहाँ से च्यव कर वैताढ्य-पर्वत पर तोरणपुर-नामक नगर में दृढ़शक्ति राजा की पुत्री हुई। तब उसका नाम कनकमाला पड़ा। और वह चित्रकार मरकर वाणमंतर-देवता हुआ। कनकमाला ने उस देव से पूछा- "हे पिता ! इस भव में मेरा पति कौन होगा?” तो देव ने कहा-"पूर्व भव में जो जितशत्रु-नामक राजा था, वही इस भव में सिंहस्थ-नामक राजा होगा वह घोड़े पर यहाँ आयेगा।" यह सब सुनकर सिंहरथ को भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अब राजा कुछ दिनों तक वहाँ रह गया। बाद में वह राजधानी में लौटा अवश्य; पर प्रायः पर्वत पर कनकमाला के यहाँ जाया करता । पर्वत ‘पर प्रायः रहने से ही उसका नाम नग्गति पड़ा ।' १-तो कालेण जम्हा नगे अईइ तम्हा 'नग्गइ एस' त्ति पइठियं नामं लोएण राइणो - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका, पत्र १४४.२ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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