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भक्त राजे
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उसका पिता भोजन कर रहा था, तब तक बैठे-बैठे उस कनकमंजरी ने एक मयूरपिच्छ बना दिया । उस दिन सभागार देखने जब राजा आया तो मयूरपिच्छ देखकर वह उसे उठाने चला । पर, वहाँ तो चित्र था । आघात से उँगली का नख टूट गया ।
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राजा फिर उस चित्र को देखने लगे । राजा को चित्र देखते देख कर विनोद से कनकमंजरी बोली - "अब तक तीन पाँवों वाली पलंग थी । आप जो चौथे मूर्ख मिल गये, तो अब पलंग चार पाँचों वाली हो गयी ।" यह सुनकर राजा बोला - " शेष तीन कौन हैं ? और मैं चौथा किस प्रकार हूँ ?" इसे सुनकर वह कन्या बोली - " मैं चित्रांगद नामक चित्रकार की पुत्री हूँ । सदा मैं अपने पिता के लिए भोजन लेकर आती हूँ । आज भोजन लेकर आते समय राजमार्ग में मैंने एक घुड़सवार देखा । वह पहला मूर्ख था; क्योंकि राजमार्ग में स्त्री - बालक-वृद्ध आदि आते-जाते रहते हैं । उस भीड़-भाड़ की जगह में वेग से घोड़ा चलाना कुछ बुद्धिमानी का काम नहीं है । इसलिए मूर्ख रूपी पलंग का वह पहला
पाया हुआ ।
" दूसरा मूर्ख इस नगर का राजा है, जिसने दूसरे की शक्ति और वेदना जाने बिना सभी चित्रकारों को समान भाग चित्र बनाने को दिया । घर में अन्य प्राणी होने से उनकी सहायता से दूसरे चित्रकार जल्दी-जल्दी काम कर सकने में समर्थ हैं; पर मेरे पिता तो पुत्र - रहित और दुःखी मन हैं। वे अकेले दूसरों के इतना काम कैसे कर सकते हैं ? इसलिए राजा मूर्खरूपी चौकी का दूसरा पाया है ।
"तीसरे मूर्ख मेरे पिता हैं । उनका उपार्जित धन खाते-खाते समात हो चुका है । जो बचा है, उससे ही किसी प्रकार मैं नित्य भोजन लाती हूँ । जब मैं लेकर आती हूँ, तो वह शौच जाते हैं । मेरे आने से पूर्व ही शौच नहीं हो आते; और जाते हैं तो जल्दी नहीं आते। इतने में भोजन
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