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मंखलिपुत्र का जीवन
१०६ प्रथम वर्षावास बिताने में आया । दूसरे वर्ष में मास खमण की तपस्या करके पूर्वानुपूर्वी विचरता हुआ, ग्रामानुग्राम में विहार करता हुआ राजगृह-नगर के नालंदापाड़ा के बाहर यथाप्रतिरूप अवग्रह मात्र कर तंतुवायशाला के एक भाग में वर्षावास बिताने के लिए रुका।
__"अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण गोशालक भी उसी तंतुवायशाला में आकर टहरा । मास-खमण की पारणा के लिए मैं तंतुवायशाला से निकला और नालंदा के मध्य भाग में होता हुआ राजगृह पहुँचा। राजगृह में विजय-नामक गाथापति रहता था। उसने बड़े आदर से मुझे भिक्षा दी । उस समय उसके घर में पाँच दिव्य प्रकट हुए- १ वसुधारा की वृष्टि, २ पाँच वर्णों के पुष्पों की वृष्टि, ३ ध्वजा-रूप वस्त्र की वृष्टि, ४ देवदुंदुभी बजी और ५५ 'आश्चर्यकारी दान', 'आश्चर्यकारी दान' की ध्वनि स्वर्ग से आने लगी। राजमार्ग में भी लोग उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। बहुत-से लोगों से विजय की प्रशंसा सुन गोशाला को कुतूहल उत्पन्न हुआ और वह विजय के घर आया। फिर मेरे पास आकर उसने कहा-'हे भगवन् ! आप हमारे धर्माचार्य हैं और मैं आपका अंतेवासी।'' उस समय मैंने गोशाला के इस कथन का आदर नहीं किया ।
"दूसरा मास-क्षमण पूरा करके भिक्षा के लिए मैं निकला और आनंद गाथापति के घर की भिक्षा से मैंने पारणा की। तीसरा मास-क्षमण करके मैंने सुनन्द के घर भिक्षा ग्रहण की। इन दोनों को भी बड़ी प्रशंसा हुई
१-अभिधान चिन्तामणि स्वोपज्ञ टीका सहित, देवाधिदेव कांड, श्लोक ७६ (पृष्ठ २५ ) में अंतेवासी के पर्याय इस रूप में दिये हैं :
शिष्यो विनेयोऽन्तेवासी । ओर, 'अन्तेवासी' की टीका इस प्रकार दी हुई है
गुरोरन्ते वसत्यवश्यं इति अन्तेवासी शयवासिवासेष्व कालात् ।
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