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श्रमण श्रमणी
३४३ उन आर्याओं ने अपने कान ढँक लिये और बोली - "हम साध्वियाँ निर्गथपरिग्रहरहित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं । इस प्रकार के वचन सुनना हमें कल्पता नहीं तो इस सम्बंध में उपदेश देना अथवा आचरण करना क्या कल्पेगा ? हम तो केवलि - प्ररूपित धर्म अच्छी प्रकार से कह सकते हैं ?"
इस पर पोहिला ने केवलि - प्ररूपित धर्मं सुनने की इच्छा की । आर्याओं ने पोडिला को धर्मोपदेश दिया ।
धर्मोपदेश सुनकर पोहिला ने श्रावक-धर्म अंगीकार करने की इच्छा प्रकट की और पाँच अणु व्रत आदि व्रत लिये ।
उसके बाद पोट्टिला श्राविका होकर रहने लगी ।
एक दिन पहिला रात को जग रही थी तो उसे विचार हुआ" सुत्रता आर्या के पास दीक्षा लेना ही कल्याणकारक है ।"
दूसरे दिन पोट्टिला तेतलिपुत्र के पास जाकर हाथ जोड़ कर बोली-"हे देवानुप्रिय ! मैं सुव्रता आर्या के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ । इसके लिए मुझे आप आज्ञा दें !"
तेतलिपुत्र ने कहा --- "हे देवानुप्रिय ! प्रत्रज्या लेने के बाद काल के समय काल करके जब देवलोक में उत्पन्न होना, तो हे देवानुप्रिया तुम देवलोक से आकर मुझे : केवली - प्ररूपित धर्म का बोध कराना । यदि यह स्वीकार हो तो मैं तुम्हें अनुमति दे सकता हूँ अन्यथा नहीं ।"
पोहिला ने तेलीपुत्र की बात स्वीकार कर ली और उसने आर्या सुत्रता के समक्ष दीक्षा ले ली । अंत में एक मास की संलेखना करके अपने आत्मा को क्षीण कर साठ भक्तों का अनशन कर पाप कर्म की आलोचना तथा प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक काल करके देवलोक में उत्पन्न हुई ।
उसके कुछ काल बाद कनकरथ राजा मर गया । उसका लौक कार्य करने के पश्चात् प्रश्न उठा कि गद्दी पर कौन बैठे ? लोग तेतली पुत्र
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