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तीर्थंकर महावीर
को मुक्त ) कराओ और दस दिनों की स्थितिपतिका ( उत्सव ) का आयोजन करो । कनकरथ राजा के राज्य में मुझे पुत्र हुआ है, अतः इसका नाम कनकध्वज होगा । अनुक्रम से वह शिशु बड़ा हुआ कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया और युवा हुआ ।
कुछ समय बाद तेलीपुत्र और पोट्टिला में अरुचि हो गयी । तेतली - पुत्र को पोहिला का नाम और गोत्र सुनने की भी इच्छा न होती । पोट्टिला को शोक संतप्त देखकर तेतलीपुत्र ने एक बार कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम खेद मत करो । मेरी भोजनशाला में विपुल अशन-पान-खादिम और स्वादिम तैयार कराओ । तैयार कराकर श्रमण, ब्राह्मण यावत् वणीमगों को दान दिया करो ।”
उसके बाद वह पोट्टिला इस प्रकार दान देने लगी ।
उस समय सुव्रता- नामक ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत और बहुत परिवार वाली अनुक्रम से विहार करती हुई तेतलीपुर नामक नगर में आयी ।
सुव्रता आर्या का एक संघाटक ( दो साध्वियाँ ) पहली पोरसी में स्वाध्याय करके यावत् भिक्षा के लिए वे दोनों साध्वियाँ तेतलीपुत्र के घर में आर्यो । उन्हें आते देखकर पोट्टिला खड़ी हो गयी और वंदना करने के बाद नाना प्रकार के भोजन देकर बोली - "हे आर्याओ ! पहले मैं तेतली - पुत्र की इष्ट थी; अब अनिष्ट हो गयी हूँ । आप लोग बहुशिक्षिता हैं और बहुत से 'ग्राम, आकर, नगर, आदि में विचरण करती रहती हैं, बहुत से राजा यावत् गृहियों के घर में जाती रहती हैं, तो हे आर्याओ ! क्या कोई चूर्णयोग ( द्रव्य चूर्णानां योगः स्तम्भनादिकर्मकारी ), कर्मयोग ( कुष्ठादि रोग हेतुः ), कर्मयोग ( काम्यः योगः - कमनीयता हेतुः ), हृदयोड्डापन ( हृदयोडावन चित्ताकर्षण हेतुः ), कायोड्डापन ( कार्याकर्षणहेतुः ), अभियोग ( पराभिभवनहेतुः ), वशीकरण, कौतुककर्म, मतिकर्म अथवा मूल, कंद, छाल, बेल, शिलिका, गुटिका, औषध अथवा भेपज पहले से आपने प्राप्त किया जिसके द्वारा मैं पुनः तेलीपुत्र की इष्ट हो जाऊँ ?"
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