SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मत्स्य-मांस परक अथ आगम-विरोधियों की देन १८५ है । अपने पांडित्य के भ्रम में डालने की बेचरदास की यह अनधिकार चेष्टा है। यदि बेचरदास ने कोई नयी टीका देखी हो तो उन्हें उसका नाम लिखना चाहिए था। और, तभी उनकी उक्ति विचारणीय मानी जा सकती थी। ___यह सब वस्तुतः गुजरात विद्यापीठ की फसल है, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। उसके बाद तीसरी बार यह बावेला गोपालदास पटेल ने उठाया । गुजरात विद्यापीठ की जैन साहित्य-प्रकाशन-समिति से पटेल की पुस्तक 'भगवतीसार' ( सन् १९३८ ई०) प्रकाशित हुई। उसी समय उन्होंने 'प्रस्थान' ( वर्ष १४, अंक १ कार्तिक संवत् १९९५ वि०) में एक लेख भी लिखा । उस समय भी जैन-जगत ने उसका डट कर विरोध किया। __ उस विरोध से पटेल का हृदय-परिवर्तन हुआ या नहीं, यह तो नहीं कह सकते, पर उससे वे प्रभावित अवश्य हुए । और, अगस्त १९४१ मैं प्रकाशित अपनी 'महावीर-कथा' में उन्होंने उक्त प्रसंग को इस प्रकार लिखा___..... तेणे मारे माटे राँधी ने भोजन तैयार करेलँ छे। तेने कहे जे के मारे ते भोजन नु काम नथी; परन्तु तेणे पोताने माटे जे भोजन तैयार करेलूँ छे ते मारे माटे लई आव. . . . .” (पृष्ठ ३८८) सुलझाने के प्रयास में भी गोपालदास ने अपना विचार एक अति छद्म रूप में प्रकट किया। उन्होंने वहाँ 'भोजन' लिखा, जब कि वह ओषधि थी। मत्स्य-मांस परक अर्थ आगम-विरोधियों की देन मत्स्य-मांस परक अर्थ की प्राचीनता की ओर ध्यान दिलाने के निमित्त सुखलाल ने बड़े छद्म रूप में एक नाम लिया है-और वह है, पूज्यपाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy