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तीर्थङ्कर महावीर में चची चलते समय प्रसिद्ध जैन-पंडितों ने ही उनकी ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया और मैंने उक्त लेख में उनका प्रयोग किया था ।”
उस समय वहाँ कौन-कौन था, इसका उल्लेख करते हुए काका कालेलकर ने 'भगवान् बुद्ध' की भूमिका में लिखा है
"गुजरात विद्यापीठ से बुलावा आने पर उन्होंने वहाँ जाकर कई ग्रन्थ लिखे । और, पंडित सुखलाल, मुनि जिनविजय जी, श्री बेचरदास जी और रसिकलाल पारिख-जैसे जैन-विद्वानों के साथ सहयोग करके जैन और बौद्ध साहित्य का तुलनात्मक अभ्यास करने में बड़ी सहायता की !”
उस समय वहाँ कौन-कौन था, इसकी जानकारी का साधन 'पुरातत्त्व' मैं प्रकाशित प्रबंध समिति के सदस्यों की नामावलि भी है। उसमें निम्नलिखित नाम दिये हैं-१ मुनि जिनविजय, २ .........३ सुखलाल,
हम यहाँ कुछ न कहेंगे। ये सूचियाँ स्वयं अपनी कहानी कहने में समर्थ हैं। ___'जैन साहित्य प्रकाशन-ट्रस्ट' द्वारा प्रकाशित श्री भगवतीसूत्र के चौथे भाग में बेचरदास ने एक लम्बी भूमिका लिखी है। उस भूमिका में एक शीर्षक है- 'व्याख्याप्रज्ञप्ति माँ आवेला केटलाक विवादास्पद स्थानों ।' उसमें (पृष्ठ २३ ) पर उन्होंने लिखा है__ "गोशालक ना १५-मा शतक भगवान् महावीर माटे सिंह अनगार ने आहार लाववायूँ कहेवा माँ आव्युं छे । ते प्रसंगे बे-त्रण शब्दो घणा विवादास्पद छे-कवोय सरीरा--कपोत-शरीर-मजार कडए-मार्जार कृतकुक्कुड मंसए-कुक्कुट-मांस । आ त्रण शब्द ना अर्थ माँ विशेष गोटाळो मालूम पड़े छे। कोई टीकाकारो अहिं 'कपोत' नो अर्थ 'कपोत पक्षी', 'मार्जार' नो अर्थ प्रसिद्ध 'मार्जार' अने कुक्कुट नो अर्थ प्रसिद्ध 'कुकड़ो' कहे छे । आ माँ कयो अर्थ बराबर छे ते कही शकात न थी..."
व्याख्याप्रज्ञप्ति की दो टीकाएं हैं-अभयदेवसूरि की और दानशेखर गणि की । उन दो में से किसी में भी प्राणिवाचक टीका नहीं की गयी
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