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प्रथम निन्हव: जमालि
१६१ विहार करता हुआ श्रावस्ती पहुँचा और श्रावस्ती के निकट स्थित कोष्ठकचैत्य' में टहरा।
रुखा-सूखा आहार खाने से वहाँ जमालि पित्तज्वर से बीमार पड़ गया । उसे भयंकर कष्ट था । उसने अपने श्रमणों से बुला। कर कहा"मेरे लिए शय्या लगा दो।उसके श्रमण शय्या लगाने लगे । वेदना से पीड़ित जमालि ने फिर पूछा- "मेरे लिए संस्तारक कर चुके या कर रहे हो ?' शिष्यों ने कहा-"संस्तारक कर नहीं चुका कर रहा हूँ।' यह मुनकर जमालि को विचार हुआ-"श्रमण भगवान् महावीर कहते हैंकरेमाणे कड़े ( जो किया जाने लगा सो किया ) ऐसा सिद्धान्त है; पर यह मिथ्या है । कारण यह है कि, मैं देखता हूँ कि जब तक शय्या की जा रही है, वह 'की जा चुकी है' नहीं है ।” ऐसा विचार करके उसने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा--"देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं—'चलेमाणे चलिए,' पर मैं कहता हूँ कि जो निर्जरित होता हो, वह निर्जरित नहीं है 'अनिर्जरित' है । कुछ ने जमालि के तर्क को ठीक समझा, पर कितने ही स्थविरों ने उसका विरोध किया। और, वे जमालि से पृथक हो ग्रामानुग्राम विहार करते भगवान् महावीर के पास चले गये।
जिन साधुओं ने विरोध किया, उन्होंने तर्क उपस्थित किया-"भगवान् महावीर का 'करेमाणे कड़े' का कथन निश्चयनय की अपेक्षा से सत्य है।
१-ठाणांगसूत्र सटीक ठा० ७, उ० ३, पत्र ४१० में तेदंक-चैत्य लिखा है, पर उत्तराध्ययन की शांत्याचार्य की टीका पत्र १५३-२, नेमिचन्द्र की टीका पत्र ६६-५ तथा विशेषावश्यक गाथा २३०७ की टीका में तेंदुक-उद्यान और कोष्ठक-चैत्य लिखा है।
२- मूल पाठ भगवती सूत्र सटीक शतक १, उद्देशा १, सूत्र ८, पत्र २१-२२ में इस प्रकार है-"चलमाणे चलिए १ उदीरिज्जमाणे उदीरिए २ वेज्जमाणे वेइए ३ पहिज्जमाणे पहीणे ४, छिज्जमाणे छिन्ने ५, भिज्जमाणे भिन्ने ६, दड्ढेमाणे दड्ढे ७, मिजप्रमाणे मए ८ निज्जरिमाणे निज्जिन्मे है ।
टीका में पत्र २४ से २७ तक इस सिद्धान्त पर विषद् रूपसे विचार किया गया है ।
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