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________________ १६२ तीर्थंकर महावीर निश्चयनय क्रियाकाल और निष्ठाकाल को अभिन्न मानता है । इसके मत से कोई भी क्रिया अपने समय में कुछ भी करके ही निवृत्त होती है । तात्पर्य यह कि, यदि क्रियाकाल में कार्य न होगा, तो उसकी निवृत्ति के बाद वह किस कारण होगा ? अतः निश्चयनय का सिद्धान्त तर्कसंगत है और इसी निश्चयात्मकनय को लक्ष्य में रख कर भगवान् का 'करेमाणे कड़े ' का कथन सिद्ध हुआ हैं । जो तार्किक दृष्टि से बिलकुल ठीक है ।" दूसरी भी अनेक दृष्टियों से स्थविरों ने जमालि को समझाने का प्रयास किया पर वह अपने हठ पर दृढ़ रहा । कुछ काल बाद रोगयुक्त होकर कोष्ठक चैत्य से विहार कर जमालि चम्पा में भगवान् के पास आया । और, उनके सम्मुख खड़ा होकर बोला"हे देवानुप्रिय ! आपके बहुत से शिष्य छद्मस्थ विहार कर रहे हैं; पर मैं छद्मस्थ नहीं हूँ | मैं केवल -ज्ञान और केवल दर्शन धारण करने वाला और अर्हन्- केवली रूप में विचर रहा हूँ ।' यह सुनकर भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य इंद्रभूति गौतम जमालि को सम्बोधित करके बोले – “हे जमालि ! यदि तुम्हें केवल - ज्ञान और केवल - दर्शन उत्पन्न हुए हैं तो मेरे दो प्रश्नों का उत्तर दो। 'लोक शाश्वत है या अशाश्वत' 'जीव शाश्वत है या अशाश्वत' ?" इन प्रश्नों को सुनकर जमालि शंकित, कांक्षित और कलुषित परिणाम वाला हो गया | वह उनका उत्तर न दे सका । फिर भगवान् बोले – “मेरे बहुत से शिष्य छद्मस्थ है; पर वह भी मेरे समान इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं । तुम जो यह कहते हो कि 'मैं सर्वज्ञ हूँ' 'जिन हूँ', ऐसा कोई कहता नहीं फिरता । " हे जमालि ! लोक शाश्वत है, कारण कि 'लोक कदापि नहीं था', ऐसा कभी नहीं था । 'लोक कदापि नहीं है, ऐसा भी नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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