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________________ ४०५ श्रावक-धर्म दर्शन के ८ अतिचार प्रवचनसारोद्धार सटीक (गाथा २६८, पत्र ६३-२ ) में दर्शन के ८ अतिचार इस प्रकार बनाये गये हैं:निस्संकिय' निक्कंखिय निधितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उक्वूह थिरीकरणे वच्छल पभावणे अट्ठ । (पृष्ठ ४०४ पाद टिप्पणि का शेषांश) ४-उपधानहीनातिचार -सिद्धान्त में कहे तप बिना सूत्र पढ़े अथवा पढ़ाये । यह चौथा उपधानहीनातिचार है। ५-निलवणातिचार -जिस गुरु के पास विद्याभ्यास किया हो, उसका नाम छिपाकर किसी बड़े गुरु का नाम बताना पाँचवाँ अतिचार है। ६-वंजणातिचार --व्यंजन, स्वर, मात्रादिक का न्यूनाधिक उच्चारण करना वंजणातिचार है। ७-अत्थातिचार --अर्थ यदि न्यूनाधिक कहे तो अत्था तिचार है । ८-उभयातिचार --अर्थ और उच्चारण दोनों में न्यूनाधिक करना उभयातिचार है । १-निस्संकिय अतिचार --सम्यक्त्व का धारण करने वाला जो श्रावक है, उसे तीर्थकर-वचन में किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए । शंका का अभाव दर्शन का प्रथम निस्संकिय गुण है । और, तत् विपरीप विचारणा अतिचार है। २-निखिय अतिचार -जिन-धर्म के स्थान पर दूसरे धर्म अथवा दर्शन की आकांक्षा का प्रभाव दर्शन का दूसरा गुण है । और, उसके विपरीत निक्कंखिय अतिचार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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