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तीर्थकर महावीर
चारित्र के ८ अतिचार चरित्र के आठ अतिचारों के सम्बंध में प्रवचनसारोद्धार सटीक (गा० २६९ पत्र ६३-२ ) में गाथा आती है:
( पृ ४०५ की पाद टिप्पणि का शेषांश) ३-विचिकित्सा-अतिचार
-ऐसा करने का फल होगा या नहीं, इसे विचिकित्सा कहते हैं अथवा संयमपात्र महामुनीन्द्र को देखकर मन में जुगुप्सा करना। इसका जो अभाव है, वह दर्शन का तीसरा अतिचार है।
४-अमूढदृष्टि अतिचार
-अन्य दर्शन में विद्या अथवा तप की अधिकता देखकर, उसकी ऋद्धि का अवलोकन करके मोह के वश होकर चित्त विचलित करना दर्शन का चौथा अमूढ़दृष्टिगुण अतिचार है।
५-उववूह अतिचार
-समानधमी की गुणस्तवना वैयावच्चादिक करे तो उसका अनुमोदन न करना, तटस्थ रहना।
६-थिरीकरण
--कोई सहधी धर्म के विषय में चलित मन हो गया हो तो उसे स्थिर न करके उदासीन रहना।
७ वच्छल्ल
-कोई सधर्मी जात, धर्म अथवा व्यवहार-सम्बंधी आपत्ति में फंसा हो, तो उसे निवारण करने की शक्ति होते हुए भी तटस्थ रहना।
८-प्रभावना
-जिनशासन-प्रवचन श्री भगवंत भाषित सुरासुर से वंद्य होने के कारण स्वतः देदिप्यमान हैं । तथापि अपने सम्यक्त्व की शुद्धिकी इच्छा करनेवाले प्राणी को, जिससे धर्म की प्रशंसा हो, ऐसे दुष्कर तपश्चरणादि करके जिनप्रवचन पर प्रकाश डालना यह दर्शन का आठवाँ गुण है। इसके विपरीत आचरण अतिचार है।
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