________________
श्रावक-धर्म
३६६
इन सबका विस्तृत वर्णन धर्मसंग्रह सटीक, पूर्वभाग, पत्र ७१ -१ से ८१-१ तक में आता है । जिज्ञासु पाठक वहाँ देख लें ।
३ – अपने भोगरूप प्रयोजन के लिए होने वाले अधर्म व्यापार के सिवा बाकी के सम्पूर्ण अधर्म व्यापार से निवृत्त होना अर्थात् निरर्थक कोई प्रवृत्ति न करना अनर्थदण्डविरति-त्रत है ।
४. शिक्षाव्रत :--
१ - सामामिक- - काल का अभिग्रह लेकर अर्थात् अमुक समय तक अधर्म प्रवृत्ति का त्याग करके धर्म प्रवृत्ति मैं स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिक व्रत है ।
२ -- दिशावकाशिकवत - छठें व्रत में जो दिशाओं का परिणाम कर रखा है, वह यावज्जीवन के लिए है । उसमें बहुत-सा क्षेत्र ऐसा है, जिसका रोज काम नहीं पड़ता । अतः प्रतिदिन संक्षेप करे ।
३ पोषधवत : -- पोषधवत के अन्तर्गत ४ वस्तुएँ आती हैं । पोसहोववासे चव्विहे पन्नत्ते तं जहा - आहारपोसहे. सरीरसक्कारपोसहे, बंभचेरपोसहे, श्रव्वावारपोसहे त्ति'
- पौषधोपवास चार प्रकार का कहा गया - १ आहारपौषध, २ शरीरसत्कार पौषध, ३ ब्रह्मचर्यपौषध और ४ अव्यापारपौषध ।
प्रथम अहार अर्थात् खाना-पीना । इसके दो भेद हैं ( १ ) देशतः और ( २ ) सर्वतः । देशतः में तिविहार - उपवास करके पौषध करे : आचाम्ल करके पौषध करे अथवा एकाशना करके पौषध करे ।
और, चौविहार करके पौषध करना सर्वतः पौषध है ।
द्वितीय शरीरसत्कार -- स्नान, धोवन, धावन, तैलमर्दन, वस्त्राभरणादि शृंगार-प्रमुख कोई शुश्रुषा न करना ।
तृतीय ब्रह्मचर्य पालन -- पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करे ।
१ - अभिधान राजेन्द्र, भाग ५, पृष्ठ ११३३
२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org