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सद्दालपुत्र
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और, मूल के 'व्हाए जाव पायच्छिते' पाठ में से 'पायच्छिते' का अनुवाद छोड़ गये ।
यह पाठ औपपातिकसूत्र में दो स्थलों पर आता है ( औपपातिकसूत्र सटीक, सूत्र ११ पत्र ४२ तथा सूत्र २७ पत्र १११ ) । औपपातिकसूत्र का जो अनुवाद घासीलाल ने किया, उसमें 'बलिकम्म' का अनुवाद पृष्ठ १०६ पर 'पशु-पक्षी आदि के लिए अन्न का विभाग - रूप बलिकर्म किया' और पृष्ठ ३५८ पर उसका अर्थ 'काक आदि को अन्नादिदान-रूप बलिकर्म किये' किया है । घासीलाल स्थानकवासी हैं, पर उनका यह अर्थ स्वयं स्थानकवासी लोगों को भी अमान्य है । स्थानक - वासी विद्वान रतनचंद्र ने अर्द्धमागधी कोष ५ भागों में लिखा है, उसमें बलिकर्म का अर्थ उन्होंने भाग ३, पृष्ठ ६७२ पर 'गृहदेवता की पूजा' ( सूत्र ११ ) तथा 'देवता के निमित्त दिया जाने वाला' ( सूत्र २७ ) दिया है। रतनचन्द्र जी के इस उद्धरण से ही स्पष्ट है कि, घासीलाल ने कितनी अनधिकार चेष्ट की है !
प्राचीन भारत में स्नान के बाद यह सब क्रियाएं करने की परम्परा सभी में थी, चाहे वह अन्यतीर्थिक हो अथवा श्रावक व्रतधारी । यह बात औपपातिकसूत्र वाले पाठ से स्पष्ट है, जिसमें कृणिक राजा ( सूत्र ११ ) तथा उसके अधिकारी ( सूत्र २७ ) इन क्रियाओं को करते हैं । डा० जगदीशचन्द्र जैन ने 'लाइफ इन ऐंसेंट इंडिया' में उसका ठीक अर्थ किया है — " हैविंग मेड द' आफरिंग टु द ' हाउस - गाड्स" (पृष्ठ २३५ ) वेचरदास ने 'भगवान् महावीर ना दश उपासकों' में ( पृष्ठ ४१ ) यह पूरा प्रसंग ही छोड़ दिया ।
भगवान् के पास जान
इन स्नोत्तर क्रियाओं के बाद सद्दालपुत्र शुद्ध और प्रवेश योग्य वस्त्र पहन कर बहुत से मनुष्यों के साथ अपने घर से बाहर निकला और
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