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भक्त राजे
दसों भाई राज्य के लोभ में आ गये । कूणिक ने श्रोणिक को बंदी बना कर पिंजरे में डाल दिया और स्वयं अपना राज्याभिषेक करके गद्दी पर बैठ गया ।
कूणिक ने अपने पिता को भोजनादि का नाना प्रकार से कष्ट दिया; पर चेल्लणा सदा अपने पति की सेवा में लीन रही और छिपा कर श्रेणिक को भोजनादि पहुँचाती रही ।
एक दिन अपने पुत्र-स्नेह का ध्यान करके कृणिक ने अपनी माँ से पूछा-"क्या और कोई अपने पुत्र को इतना स्नेह करता है ?' इस पर माता ने कहा-"पुत्र, तुम्हारे पिता क्या तुम्हें कुछ कम स्नेह करते थे ? बचपन में तुम्हारी उँगली में व्रण था। उससे तुम्हें पीड़ा होती थी। तुम्हारी पीड़ा नष्ट करने के लिए, तुम्हारे पिता तुम्हारी व्रण वाली उँगली मुख में रखकर चूसते थे। इससे तुम्हें सुख होता था ।"
माता द्वारा स्वपितृस्नेह की कथा सुनकर, कुणिक को अपने किये का पश्चाताप होने लगा और कुराँट लेकर अपने पिता का पिंजरा तोड़ने चला ।
श्रोणिक ने कृणिक को कुराँट लेकर आता देखकर समझा कि इस दुष्ट ने अब तक मुझे नाना कष्ट दिये । अब न जाने क्या कष्ट देने आ रहा है । इस विचार से श्रोणिक ने तालपुट विष खाकर आत्महत्या कर ली।
जब कूणिक पिता के पास पहुँचा तो उसे पिता का निर्जीव शरीर मिला । इस पर कुणिक बहुत दुःखी हुआ। पिता के निधन पर कूणिक
१-तालमात्र व्यापत्ति करे उपविषे
___ राजेन्द्राभिधान, भाग ४, पृष्ठ २२२९ तालपुट विषं सद्योघातित्वेन ।
-उत्तराध्ययन, अ० १६, गा० १६, नेमिचन्द्र की टीका पत्र २२४.१
२-आवश्यकचूर्णि, उत्तराद्ध, पत्र १७२
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