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सद्दालपुत्र
फिर क्षार (राख) और करीब (गोबर) मिलाया गया । चढ़ाया और उसके बाद करक यावत् उष्ट्रिका बनाये ।”
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भगवान् ने पूछा - "ये कुम्भकारपात्र उत्थान यावत् पराक्रम से उत्पन्न होते हैं या उत्थान सिवाय यावत् पराक्रमहीनता से ?” इस पर सद्दालपुत्र ने कहा - "भगवान् ! ये उत्थान सिवाय यावत् पराक्रमहीनता से बनते हैं; क्योंकि उत्थान यावत् पुरुषाकार का अभाव है । सब कुछ नियत है ।"
तव चाक पर
इस पर भगवान् ने पूछा - "हे सद्दालपुत्र ! यदि कोई व्यक्ति तुम्हारा वायु से सूखा पात्र चुरा ले पाये; यत्र-तत्र फेंक दे, फोड़ डाले, बलपूर्वक लेकर फेंक दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगते विहरे तो क्या उसे तू दंड देगा ?"
"हाँ ! मैं उस पुरुष पर आक्रोश करूँगा, उसे हनन करूँगा, बाँधूंगा, तर्जना करूँगा, ताड़न करूँगा और मार डालूँगा।”
इस पर भगवान् बोले - "यदि उत्थान यावत् पराक्रम का अभाव है, और सर्व भाव नियत है, तो कोई पुरुष तुम्हारे वायु से सूखे, और पकाये हुए पात्रों का हरण करता नहीं; और उसे बाहर लेकर फेंकता नहीं, और तुम्हारे पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता नहीं है ! और, तुम उस पर आक्रोश करते नहीं, हनते नहीं यावत् जीवन से मुक्त नहीं करते । और, यदि कोई व्यक्ति इन पात्रों को उठा ले जाता है, और अग्निमित्रा के साथ भोग भोगता है, और तू आक्रोश करता है, तो तुम्हारा यह कहना कि 'उत्थान नहीं है यावत् सर्व भाव नियत है, ' मिथ्या है ।"
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ऐसा सुनकर सद्दालपुत्र को प्रतिबोध हुआ ।
उसके बाद आजीविकोपासक सद्दालपुत्र ने भगवान् को वंदन नमस्कार किया और बोला — "हे भगवान् ! आप के पास श्रमणोपासक धर्म स्वीकार
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