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भक्त राजे
६२७ — जो श्रेणी का अधिपति है और श्रेणी को संग्रह करता है, वह श्रेणिक है | जैन-ग्रन्थों में श्रेणियों की संख्या अठारह बतायी गयी है । ' और, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में उन्हें इस प्रकार गिनाया गया है:
अष्टादश श्रेणयश्चेमा :- "कुंभार १, पट्टइल्ला २, सुवण्णकारा ३, सूवकारा य ४ । गंधव्वा ५, कासवगा ६, मालाकारा ७, कच्छकरा८ ॥ १ ॥ तंबोलिया ६ य ए ए नवप्पयारा य नारुश्रा भणिना । अह णं णवप्पयारे कारुवराणे पवक्खामि ॥ २॥
चम्मरु १, जंतपीलग २, गंछित्र ३, छिपाय ४, कंसारे ५, य । सीवग ६, गुनार ७, भिल्ला ८, धीवर ६, वरणइ अट्ठदस ॥ ३ ॥
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-१ कुम्हार, २ रेशम बुनने वाला, ३ सोनार, ४ रसोईकार, ५ गायक, ६ नाई, ७ मालाकार, ८ कच्छकार ( काछी ), ९ तमोली, १० मोची, ११ तेली ( जंतपीलग ), १२ अंगोछा बेचने वाले ( गंछी ), १३ कपड़े छापने वाले, १४ ठठेरा ( कंसकार ), १५ दर्जी ( सीवग ), १६ ग्वाले (गुआर ), १७ शिकारी ( भिल्ल ), १८ मछुए ।
डाक्टर जगदीशचंद्र जैन ने ' पट्टइल्ल' से गुजराती शब्द 'पटेल' का अर्थ लिया है । यही अर्थ हरगोविंददास टी० सेठ ने अपने कोष 'पाइअसद्दमहण्णवों' में दिया है। सुपासनाह चरिय में पट्टइल्ल का संस्कृत रूप 'प्रदेश' दिया है ।' पर, यह उनकी भूल है । 'पट्ट' शब्द जैन तथा अन्य
सेणीप्पणी - ज्ञाताधर्मकथा,
१ – 'अट्ठारस
पत्र ४० ।
२ - जम्बूद्वीप प्रज्ञति सटीक, वक्षस्कार ३, पत्र १९३ ! ३ - लाइफ इन ऐंशेंट इण्डिया, पृष्ठ १०६ ।
४ - पाइअसद्द महण्णवो, पृष्ठ ६३२ ।
५ - सुपासमाहचरियं, पृष्ठ २७३,३६१
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