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________________ स्कंदक की प्रव्रज्या ८१ एक दिन पिंगल स्कंदक-तापस के वासस्थान की ओर जा निकला । स्कंदक के निकट जाकर उसने पूछा-" हे मागध ! यह लोक अंत वाला है या बिना अंत वाला है ! जीव अन्त वाला है या बिना अन्त वाला है ? सिद्धि अंत वाली है या बिना अन्त वाली है ? सिद्ध अन्त वाला है या बिना अन्त वाला है ? किस मरण से मरता हुआ जीव घटता अथवा बढ़ता है ? जीव किस प्रकार मरे तो उसका संसार बढ़े अथवा घटे ? इन प्रश्नों का तुम उत्तर बताओ।" ___ इन प्रश्नों को सुनकर उनके उत्तर के सम्बन्ध में स्कंदक शंकाशील हो गया । और, विचारने लगा-"इनका क्या उत्तर दूँ ? और, जो उत्तर दूंगा उससे प्रश्नकर्ता संतुष्ट होगा या नहीं ?" शंकाशील स्कंदक उनका उत्तर न दे सका। पिंगल ने कई बार अपने प्रश्न दुहराये। पर, शंकावाला कांक्षावाला स्कंदक कुछ न बोल सका; क्योंकि उसे स्वयं अविश्वास हो गया था और उसकी बुद्धि भंग हो गयी थी। यह कथा उसी समय की है, जब भगवान् छत्रपलासक-चैत्य में ठहरे हुए थे । लोगों के मुख से स्कंदक ने भगवान् के आगमन की बात सुनी तो स्कंदक को भी भगवान् के पास जाकर उन्हे वन्दन करके, अर्थों के, हेतुओं के, प्रश्नों के, व्याकरणों के पूछने की इच्छा हुई। ऐसा विचार कर वह स्कंदक परिव्राजक मठ की ओर गया और वहाँ जाकर उसने त्रिदंड, कुंडी, (कंचणिअं) रुद्राक्ष की माला, ( करोटिका) मिट्टी का बरतन, आसन, ( केसरिका ) बरतनों को साफ-सुथरा करने का कपड़ा, (छणणालयं) त्रिकाष्ठिका, अंकुश ( पत्र आदि तोड़ने का अंकुश), पवित्रकं (कुश की अंगूठी-सरीखी वस्तु), ( गणेत्तियं ) कलायी का एक प्रकार का आभूषण, छत्र, ( वाहणाइ) पगरखा, (धाउरत्ताऔ) गेरुए रंग में रंगा कपड़ा आदि यथास्थान धारण करके कृतंगला-नगरी की ओर चला । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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