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२३ वाँ वर्ष वास स्कंदक की प्रव्रज्या
वर्षावास समाप्त होने के बाद, भगवान् राजगृह के बाहर स्थित गुणशिलक-चैत्य से निकले और ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए कृतंगला-नामक. नगरी में पहुँचे । उस नगरी के ईशान कोण में छत्रपलाशक-नामक चैत्य था, वहाँ ही भगवान् ठहरे और उनका समवसरण हुआ।
उस कृतंगला के निकट ही श्रावस्ती-नामक नगर था। उस श्रावस्ती नगरी में कात्यायन-गोत्रीय गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य स्कंदक नामक परिव्राजक रहता था । वह चारों वेद, पाँचवाँ इतिहास, छठाँ निघंटु का ज्ञाता था और षष्टितंत्र ( कापिलीय-शास्त्र) का विशारद था। वह गणितशास्त्र, शिक्षा-शास्त्र, आचार-शास्त्र, व्याकरण-शास्त्र, छंदशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, ज्योतिषशात्र तथा अन्य ब्राह्मण-नीति और दर्शन-शास्त्रों में पारंगत था।
उस नगरी में भगवान् महावीर के वचन में रस लेने वाला पिंगल' नामका निर्गथ ( साधु ) रहता था।
१-'पाइअसणमहणणओ' में पृष्ठ ७३५ पर पिंगल को 'एक जैन-उपासक', लिखा है । यह पिंगल उपासक नहीं था, साधु था। मूल पाठ-'पिंगलाए णामं नियंठे वेसालिय सावए' है । कोषकार को 'सावए' शब्द पर भ्रम हुआ। इसका कारण यह था कि कोषकार ने टीका नहीं देखी । भगवती की टीका (पत्र २०१) में 'वेसा लिए. सावए' को टीका इस प्रकार दी हुई है-"विशाला--महावीर जननी तस्या अपत्यमिति वैशालिक:-भगवांस्तस्य वचनं शृणोति तद्रसिकत्वादिति वैशालिक श्रावकः तद्वचनामृत पाननिरत इत्यर्थः" । और, 'निर्गथ' की ठीका में "निर्गथः श्रमण इत्यर्थः। स्पष्ट लिखा है।
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