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________________ तीर्थङ्कर महावीर प्रव्रज्या लेने के बाद उसने सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अभ्यास किया और नाना प्रकार के तप किये। अन्त में एक मास का अनशन करके वह मृत्यु को प्राप्त हुआ और सौधर्मकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ।' भगवान् सिन्धु-सौवीर में । उस समय सिन्धु-सौवीर की राजधानी वीतभय में उद्रायण-नामक राजा राज्य करता था। एक दिन पौषधशाला में वह धर्मजागरण कर रहा था, तो उसे विचार हुआ--"धन्य हैं, वे नगर, जहाँ भगवान् पधारते हैं । और, वहाँ के लोगों को भगवान् के वन्दन-पूजन का अवसर मिलता है । भगवान् यदि आते तो मुझे भी उनके दर्शन-वन्दन का अवसर मिलता। उद्रायन के मन का विचार जानकर भगवान् चम्पा से वीतभय गये। वहाँ जाते समय गर्मी के मौसम और साथी यात्रा में भगवान् के शिष्यों को बड़े कष्ट झेलने पड़े । कोसों तक बस्ती न मिलती। उस समय जब भगवान् अपने भुखे-प्यासे शिष्यों के साथ जा रहे थे, उन्हें तिलों से लदो गाड़ियाँ नजर आयी। साधु-समुदाय देखकर तिलों के मालिक ने तिल देते हुए कहा-"इसे खाकर आप लोग क्षुधा शान्त करें।" पर, भगवान् ने तिल लेने की अनुमति साधुओं को नहीं दी। भगवान् को ज्ञात था कि, वे तिल अचित्त है; पर अचित्त-सचित्त के इस भेद से तो छद्मस्थ साधु अपरिचित थे । अतः आशंका इस आत थी कि यदि तिल. १-विपाक सूत्र ( डा० पी० एल० वैद्य-सम्पादित) द्वितीय श्रुतस्कंध, अध्ययन ६, पृष्ठ-३ २-उद्रायन के सम्बन्ध में राजाओं के प्रसंग में विशेष सूचनाएँ हैं। ३-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १० सर्ग ११, श्लोक ६१२-६२६ पत्र १५७-१, १५७-२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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