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भगवान् सिन्धु-सौवीर में
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खाने की अनुमति दे दी जाती तो कालान्तर में छद्मस्थ साधु सचित्त तिल भी खाने लगते ।
इसी विहार में प्यास से व्याकुल साधुओं को एक ह्रद दिखलायी पड़ा। उस हद का जल अचित्त था। पर, भगवान ने उस ह्रद का जल पीने की अनुमति साधुओं को नहीं दी; क्योंकि इसमें भी भय था कि, सचित्तअचित्त का भेद न जानने वाले छद्मस्थ साधुओं में हृद-जल पीने की प्रथा चल पड़ेगी।
अंत में विहार करते हुए भगवान् वाणिज्यग्राम आये और अपना वर्षावास उन्होंने वहीं बिताया।
१-वृहत्कल्पसूत्र साभाष्य वृत्ति सहित, विभाग २, गाथा ६६७-६६६पष्ठ ३१४-३१५
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