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________________ ४७८ तीर्थङ्कर महावीर देवानु-प्रिय ! महामाहण कौन है ?' इस पर गोशालक ने कहा-"श्रमण भगवान् महावीर महामाहण हैं ?” । "हे देवानुप्रिय ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ? "हे सद्दालपुत्र ! खरेखर श्रमण भगवान् महावीर महामाहण, उत्पन्न हुए ज्ञान-दर्शन के धारण करने वाले यावत् महित्-स्तुति करने योग्य और पूजित हैं यावत् तथ्य कर्म की सम्पत्तियुक्त हैं। इस कारण से, हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर महामाहण है ।” फिर गोशालक ने पूछा- "हे देवानुप्रिय ! यहाँ महागोप आये थे ?" "हे देवानु प्रिय ! महागोप कौन हैं ?" । "श्रमण भगवान् महावीर महागोप हैं।" "हे देवानुप्रिय ! किस कारण से वह महागोप कहे जाते हैं ?" "हे देवानुप्रिय ! इस संसार रूपी अटवी में, नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण किये जाते, छेदित होते हए, भेदित होते हुए, लुप्त होते हुए, विलुप्त होते हुए बहुत-से जीवों का धर्मरूप दंड से संरक्षण करते हुए, संगोपन ( बचाव ) करते हुए, निर्वाण-रूपी बाड़े में अपने हाथ से पहुँचाते हैं। इस कारण हे सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महागोप हैं, ऐसा कहा जाता है । फिर गोशालक ने पूछा-“हे देवानुप्रिय ! यहाँ महासार्थवाह आये थे ?” "हे देवानुप्रिय ! महासार्थवाह कौन हैं ?' "सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह हैं।" "आप ऐसा क्यों कहते हैं ?" "हे देवानुप्रिय ! संसाररूपी अटवी में नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, यावत् विलुप्त होते हुए बहुत-से जीवों को धर्ममय मार्ग में संरक्षण करते हुए निर्वाण-रूप महापट्टण-नगर के सम्मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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