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________________ सहालपुत्र ४७९ अपने हाथों पहुँचाते हैं । इसलिए हे सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह कहे जाते हैं।" फिर गोशालक ने पूछा-'हे देवानुप्रिय ! क्या यहाँ महाधर्मकथो आये थे?" "हे देवानुप्रिय ! महाधर्मकथी कौन ?” "श्रमण भगवान् महाधर्मकथी हैं।" "हे श्रमण भगवान् महावीर को महाधर्मकथी आप क्यों कहते हैं ?" "हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर अत्य त मोटे संसार में नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण किये जाते हुए, छेदित होते हुए, लुप्त होते हुए, विलुप्त होते हुए, उन्मार्ग में प्राप्त हुए, सन्माग को भूले हुए, मिथ्यात्व के बल से पराभव प्राप्त हुए, और आठ प्रकार के कर्मरूप अंधकार के समूह में ढके जीवों के बहुत-से अर्थ यावत् व्याकरण' का उत्तर देकर चार गति-रूपी संसार की आटवी को अपने हाथ उतारते हैं । इसलिए श्रमण भगवान् महावीर धर्मकथी हैं।" फिर गोशालक ने पूछा--'हे देवानुप्रिय ! यहाँ महानिर्यामक आये थे ?” "महानिर्यामक कौन है ?" १-पूरा पाठ है 'अट्ठाई हेउई कारणाई वागरणाई"। यह पाठ औपपातिक सूत्र २७ ( सटीक पत्र ११० ) में भी आता है। वहाँ उनकी टीका इस प्रकार दो है :___अर्थान्जीवादीन् हेतून-तद्वमकानन्वयव्यतिरेकयुक्तान् कारणानिउपपत्तिमा त्राणि यथा निरुपम सुखः सिद्धो ज्ञानानाबाधत्वप्रकर्षादिति, व्याकरणानि--परप्रश्नितार्थोत्तररूपाणि ... -औपपातिकसूत्र सटीक, पत्र १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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