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________________ ४८० तीर्थकर महावीर "हे देवानुप्रिय ! भगवान् महावीर महानिर्यामक हैं।" "ऐसा आप किस कारण कह रहे हैं !” "हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर संसार-रूप महासमुद्र में नाश को प्राप्त होते हुए यावत् विलुप्त होते हुए डूबते हुए, गोता खाते हुए बहुत से जीवों को धर्मबुद्धि-रूपी नौका के द्वारा निर्वाण-रूप तट के सम्मुख अपने हाथों पहुँचाते हैं। इसलिए श्रमण भगवान् महावीर महानिर्मायक हैं।" इसके बाद सद्दालपुत्र श्रमणोपासक ने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा- "हे देवानुप्रिय ! आप निपुण हैं, यावत् नयवादी, उपदेशलन्धी तथा विज्ञानप्राप्त हैं, तो क्या आप हमारे धर्माचार्य से विवाद करने में समर्थ हैं ?" "मैं इसके लिए युक्त नहीं हूँ।” "ऐसा आप क्यों कहते हैं कि आप हमारे धर्माचार्य यावत् भगवंत महावीर के साथ विवाद करने में समर्थ नहीं हैं ?” "हे सद्दालपुत्र ! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान, युगवान, यावत् निपुण शिल्प को प्राप्त हुआ हो, वह एक मोटी बकरी, सूअर, मुर्गा, तीतर, वतक, लावा, कपोत, कपिंजल, वायस और श्येन के हाथ से, पग से, खुर से, पूँछ से, पंख से, सींग से, विषाण से जहाँ से पकड़ता है, वहीं निश्चल और निःस्पन्द दबा देता है; इस प्रकार भगवान् महावीर मुझे अर्थो, हेतुओं यावत् उत्तरों से जहाँ-जहाँ पकड़ेंगे निरुत्तर कर देंगे। इस कारण मैं कहता हूँ कि मैं भगवान् महावीर के साथ विवाद करने में समर्थ नहीं हूँ।” तब सद्दालपुत्र ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! आप हमारे धर्माचार्य भगवान् महावीर स्वामी का गुणकीर्तन करते हैं। अतः, मैं आपको For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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