SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पार्श्वपत्यों का शंका-समाधान भाग में ऊर्ध्व मृदंग-जैसा है । इस अनादि-अनन्त लोक में अनन्त जीवपिंड उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। परिणाम वाले जीव-पिंड भी उत्पन्न हो होकर नष्ट होते हैं-वह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत हैं और परिणत है । कारण यह है कि, अजीवों द्वारा वह देखने में आता है, निश्चित होता है और अधिक निश्चित होता है। जो दिखलायी पड़ता है और जाना जाता है वह लोक कहलाता है ( यो लोक्यते स लोकः )। । भगवान् के उत्तर के पश्चात् पार्श्वपत्यों ने भगवान् को सवज्ञ और सर्वदर्शी स्वीकार कर लिया और उनकी वन्दना करके पार्श्वनाथ भगवान् के चतुर्याम-धर्म के स्थान पर पंचमहाव्रत स्वीकार करने की अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर उन लोगों ने भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण कर ली और मरने के बाद उनमें से कितने ही देवलोक में उत्पन्न हुए। रोह के प्रश्न उस समय रोह ने भगवान् से पूछा- "पहले लोक है, पीछे अलोक. यो पहले अलोक है पीछे लोक ? भगवान्---"इस लोक-अलोक में दोनों ही पहले भी कहे जा सकते है और पीछे भी । इनमें पहले-पीछे का क्रम नहीं है । रोद-जीव पहले है, अजीव पीछे है या अजीव पहले है जीव पीछे है ? भगवान्-रोह ! लोक-अलोक के विषय में जो कहा है, वही जीवअजीव के सम्बन्ध में भी है। उसी प्रकार भवसिद्ध-अभवसिद्ध, सिद्ध १-'जे लोकइ से लोके–' भगवतीमत्र सटीक, शतक ५, उदेशा ६, सूत्र २२६ पत्र ४४६ उसी सूत्र की टीका में एक अन्य स्थल पर टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने लिखा-“यत्र जीवघना उत्पद्य २ विलीयन्ते स लोकोभूत"--पत्र ४५१ । २-भगवतीसूत्र सटीक शतक ५, उद्देशः ६, पत्र ४४८-४५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy