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तीर्थकर महावीर गौतम स्वामी-" हे भगवन् ? फिर ऐसा किस कारण कहते हैं कि वह अपना भांड खोजता है ? दूसरे का भांड नहीं खोजता ?" । __भगवान्-" हे गौतम ! सामायिक करने वाले उस श्रावक के मन में यह परिणाम होता है कि-'यह मेरा हिरण्य नहीं है; और मेरा स्वर्ण नहीं; मेरा काँसा नहीं है; मेरा वस्त्र नहीं है; और मेरा विपुल धन, कनकरत्न, मणि, मोती, शंख, शील, प्रवाल, विद्रु म, स्फटिक और प्रधान द्रव्य मेरे नहीं है, फिर समायिक व्रत पूर्ण होने के बाद ममत्व भाव से अपरिज्ञात बनता है। इसलिए, अहो गौतम ! ऐसा कहा गया है कि, स्वकीय भंड की ही वह अनुगवेषणा करता है। परन्तु, परकीय भंड की अनुगवेशणा नहीं करता।
गौतम- "हे भगवन् ! उपाश्रय में सामायिकवत से बैठा हुआ श्रमणोपासक की स्त्री से कोई भोग भोगे तो क्या वह उसकी स्त्री से भोग भोगता है या अस्त्री से ?
भगवान् - "हे गौतम ! वह उसकी स्त्री से भोग करता है।
गौतम-“हे भगवन् ! शीलव्रत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के समय स्त्री अ-स्त्री हो जाती है ?
भगवान्----"हाँ ठीक है।"
गौतम-- "हे भगवान् ! तो यह किस प्रकार कहते हैं कि, वह उसकी पत्नी का सेवन करता है और अ-स्त्री का सेवन नहीं करता ? ___भगवान्—'शीलवत आदि के समय श्रावक के मन में यह विचार होता है कि यह मेरी माता नहीं है, यह मेरा पिता नहीं है, भाई नहीं है, बहन नहीं है, स्त्री नहीं है, पुत्र नहीं है, पुत्री नहीं है और पुत्रवधु नहीं है। परन्तु, उनका प्रेमबन्धन टूटा नहीं रहता । इस कारण वह उसकी स्त्री का सेवन करता है।"
गौतम--"हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक को पहिले स्थूल प्राणाति
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