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________________ ५६८ तीर्थकर महावीर जब श्रावक स्वस्थ हुआ तो दासी की सेवा से प्रसन्न होकर सभी गुटिकाएँ दासी को देकर उसने स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली। गुटिकाओं को पाकर दासी बड़ी प्रसन्न हुई । उसे विचार हुआ कि इस गुटिका के प्रयोग से मैं अत्यन्त सुन्दर और स्वर्ण-सरीखी आकृतिवाली हो जाऊँ । इस विचार से उसने एक गोली खायी और अत्यन्त मनोहर रूपवाली हो गयी । अपने स्वर्ण सरीखे सौंदर्य के कारण वह स्वर्णगुलिका नाम से विख्यात हुई। फिर उसे विचार हुआ कि बिना पति के मेरा यह यौवन और रूप आरण्य पुष्प-सरीर का है। अतः इस विचार से उसने चंडप्रद्योत को पति के रूप में कामना की । और, उसने दूसरी गुटिका खाली । गुटिका के प्रभाव से देवी ने जाकर चंडप्रद्योत से स्वर्णगुलिका का रूप वर्णन किया । उसका रूप-वर्णन सुनकर चंडप्रद्योत ने वीतभय दूत भेजा । स्वर्णगुलिका ने उस दूत के द्वारा प्रद्योत से कहला दिया कि, मुझे ले चलना हो तो राजा को तुरत आना चाहिए । संदेश पाकर चंडप्रद्योत अनलगिरि हाथी पर बैठकर वीतभय आया और उसको मिला। चंडप्रद्योत को देखकर स्वर्ण गुलिका भी आसक्त हो गयी । पर, उसने अपने साथ चंदन की प्रतिमा भी ले चलने की बात प्रद्योत से कही। चंडप्रद्योत उस चंदन की प्रतिमा की प्रतिमूर्ति तैयार कराने के विचार से अवन्ती लौट आया और दूसरी मूर्ति तैयार कराकर पुनः वीतभय गया। हाथी को बाहर रोक कर, नयी प्रतिमा लेकर वह राजमहल में गया और नयी प्रतिमा वहाँ रखकर चंदन की मूल प्रतिमा और दासी को लेकर अवंती नगरी में आ गया । अनलगिरि नगर के बाहर जहाँ ठहरा था वह स्थान देखकर और अवंती के रास्ते में पड़े उसके कदमों को देखकर, लोगों ने राजा को जब For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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