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तीर्थस्थापना उसके बाद भगवान् ने उन्हें द्वादशांगी-रचना का आदेश दिया।' इसी त्रिपदी से गणधरों के द्वादशांग और दृष्टिवाद के अन्तर्गत १४ पूर्वो की रचना की । उन द्वादशांगों के नाम नन्दी-सूत्र में इस प्रकार गिनाये गये हैं। (पृष्ठ ४ की पाद टिप्पणि का शेषांश )
उप्पन्ने विगए परिणए (अ) गुणचन्द्र-रचित 'महावीर-चरियं', प्रस्ताव ८, पत्र २५७-१ (इ) उप्पन्न विगम धुवपयतियम्मि कहिए जणेण तो तेहिं ।
सव्वेहिं वि य बुद्धीहिं बारस अङ्गाई रइयाई ॥१५६४॥ -नेमिचन्द्र-रचित 'महावीर चरियं', पत्र ६६-२ (ई) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ का २९-वाँ सूत्र है
उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत् (उ) ठाणांगसूत्र के ठाणा १०, उ० ३, सूत्र ७२७ में 'माउयाणुओगे' शब्द आता है। उसकी टीका में लिखा है :--
'माउयाणु ओगे' त्ति मातृकेव मातृका-प्रवचन पुरुषस्योत्पादव्यय ध्रौव्य लक्षणा पदत्रयी तस्या...
-पत्र ४८१-१ (ऊ) समवायांग की टीका में ऊसका विवरण इस प्रकार है :-- दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनत्वेन मातृका पदानि
-समवायांगसूत्र सटीक, समवाय ४६, पत्र ६५-२ ७-जाते संघे चतुर्थैवं ध्रौव्योत्पादव्ययात्मिकाम् । इन्द्रभूतिं प्रभृतानां त्रिपदी व्याहरत् प्रभुः ॥१६॥
-त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ५ पत्र ७०-१
१-कल्पसूत्र सुबोधिका-टीका सहित, पत्र ३४०
२-(अ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १६५-१५८ पत्र ७०-१
(ओ) गुणचन्द्र-रचित 'महावीर चरियं' प्रस्ताव ८, पत्र २५७-२ (इ) दर्शन-रत्न-रत्नाकर में पाठ आता है।
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