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तीर्थङ्कर महावीर
देवों के इस आने-जाने को देखकर वह यह बात जान गयी कि, भगवान् को केवल ज्ञान हो गया । और, उसके मन में दीक्षा लेने की इच्छा हुई | उसकी इच्छा देखकर देवता लोग उसे भगवान् की पर्षदा में ले आये। भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा करके और वंदना करके वह सती दीक्षा लेने के लिए खड़ी हुई । भगवान् ने चंदना को दीक्षित किया और उसे साध्वी समुदाय का अग्रणी बनाया ।"
उसके पश्चात् भगवान् ने सहस्त्रों नर-नारियों को श्रावकइस प्रकार भगवान् ने चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ की स्थापना की ।
संघ की स्थापना के बाद भगवान् ने 'उप्पन्नेइ वा विगएइ वा धुवे वा' त्रिपदी (निषद्या ) का उपदेश किया ।
- दिया ।
१- त्रिषष्टिशालाका पुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५० श्लोक १६४, पत्र ७०-१ गुणचन्द्र - रचित 'महावीर चरियं', प्रस्ताव ८, पत्र २५७-२
२ - कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, सूत्र १३५, पत्र ३५६
३ – त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १६४, पत्र ७०-१
४ - ( अ ) चउविहे संघे पं० तं० समणा, समणीश्रो, सावगा, साविया
।
- ठाणांगसूत्र सटीक, पूर्वाद्ध, ठा० ४, उ० ४, सू० ३६३, पत्र २८१-२ (आ) तित्थं पुरा चाउवन्नाइन्ने समणसंघो तं ० - समण, समणीश्रो, सावया, सावियात्री
- भगवती सूत्र सटीक शतक २०, उ० ८, सूत्र ६८२, पत्र १४६१ ५ - तीर्थं नाम प्रवचनं तच्च निराधारं न भवति, तेन साधु-साध्वी
श्रावक-श्राविकारूपः चतुर्वर्णः संघः
-सत्तरिसयठाणा वृत्ति १०० द्वार, आ० म०
राजेन्द्राभिधान, भाग ४, पृष्ठ २२७६
६ - (आ) भगवतीसूत्र सटीक, शतक ५, उद्देशः ६, सूत्र २२५, पत्र ४४९ में यह पाठ इस रूप में है :
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