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तीर्थकर महावीर और बोला- "मैं तेरहवाँ चक्रवती हूँ।" कुणिक की बात से क्रुद्ध होकर कृतमाल ने कूणिक को भस्म कर किया ।'
__ स्तूप के सम्बन्ध में कुछ विचार __स्तूप उलटे कटोरे के आकार का होता था और या तो दाह-संस्कार के स्थान पर बनाये जाते थे। या सिद्धों अथवा तीर्थङ्करों की मूर्तियों सहित उस देवता विशेष की पूजा के लिए निर्मित होते थे। स्तूप में तीर्थङ्कर-पतिमा होने का बड़ा स्पष्ट उल्लेख तिलोयपण्णत्ति में है। उसमें आता है :
भवणखिदिप्पणिधीसुं वीहिं पडि होंति णवणवा थूहा । जिणसिद्धप्पडिमाहिं अप्पडिमांहि समाइण्णा ॥
-भवन भूमि के पार्श्व भागों में प्रत्येक वीथी के मध्य में जिन और सिद्धों की अनुपम प्रतिमाओं से व्याप्त नौ नौ स्तूप होते हैं।
इन स्तूपों की पूजा होती थी। जैन-ग्रंथों में कितने ही स्थलों पर देवदेवियों की पूजा-सम्बन्धी उत्सवों के वर्णन आये हैं, उनमें एक उत्सव 'थूभमह' भी है। 'मह' शब्द के सम्बन्ध में राजेन्द्राभिधान में लिखा है।
मह-महपूजायामिति धातोः क्वपि महः इन महों के सम्बन्ध में आचारांग की टीका में आता है:पूजा विशिष्टे काले क्रियते। १-श्रावश्यकचूर्णि उतरार्ध पत्र १७६-१७७ ।
दशावैकालिक हरिभद्रसूरिकृत टीका ( बाबू वाला ) पाठ ४७ में भी यह प्रसंग आता है।
२-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सटीक (पूर्व भाग, पत्र १५८-१) में उल्लेख है कि भरत ने ऋषभदेव भगवान् की चिता-भूमि पर अष्टापद पर्वत पर स्तूप-निर्माण करायाः
चेइअ थूभे करेह । ३--तिलोयपएणत्ती (सानुवाद) चउत्थो महाधियारो, गाथा ८४४, पष्ठ २५४ । ४--देखिये तीर्थक्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३४५.३४८ । ५-राजेन्द्राभिधान, भाग ६, पृष्ठ १७० । ६--आचारांगसूत्र सटीक, श्रु० २, पत्र २६८-२।
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