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इन्द्रभूति को केवल ज्ञान
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शोकार्त अपनी बहिन सुदर्शना के घर उन्होंने द्वितीया को भोजन किया । तब से भातृद्वितीया पर्व चला ।
इन्द्रभूति को केवलज्ञान
गौतम स्वामी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध कराके लौट रहे थे तो देवताओं की वार्ता से उन्होंने प्रभु के निर्वाण की खबर जानी । इस पर गौतम स्वामी चित्त में विचारने लगे-- "निर्वाण के दिन प्रभु आपने मुझे किस कारण दूर भेज दिया ? अरे जगत्पति ! इतने काल तक मैं आप की सेवा करता रहा, पर अंतिम समय में आपका दर्शन नहीं कर सका । उस समय जो लोग आप की सेवा में उपस्थित थे, वे धन्य थे । हे गौतम ! तू पूरी तरह वज्र से भी अधिक कठिन है; जो प्रभु के निर्वाण को सुनकर भी तुम्हारा हृदय खण्ड-खण्ड नहीं हो जा रहा है । हे प्रभु ! अब तक मैं भ्रान्ति में था, जो आप सरीखे निरागी और निर्मम में राग और ममता रखता था । यह राग-द्वेष आदि संसार का हेतु है । उसे त्याग कराने के लिए परमेष्ठी ने हमारा त्याग किया ।"
इस प्रकार शुभ ध्यान करते हुए, गौतमस्वामी को क्षपक श्रेणी प्राप्त हुई । उससे तत्काल घाती कर्म के क्षय होने से, उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
उसके बाद १२ वर्षों तक केवल ज्ञानी गौतम स्वामी पृथ्वी पर विचरण करते रहे और भव्य प्राणियों को प्रतिबोधित करते रहे । वे भी प्रभु के समान ही देवताओं से पूजित थे ।
अन्त में गौतम स्वामी राजगृह आये और वहाँ एक मास का अनशन करके उन्होंने अक्षय सुखवाला मोक्षपद प्राप्त किया ।
१ कल्पसूत्र सुवोधिका, टीका सहित, पत्र ३५१ दोपमायिका व्याख्यान, पत्र ११५
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