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________________ ६६२ तीर्थकर महावीर हिंसा अथवा प्रमादी जीवों से विशेष रूप में होने के कारण इसे हिंस्र-बिहिंसा कहते हैं), ५ अकृत्य, ६ घातना, ७ मारणा, ८ वधणा, ९ उपद्रवण, १० त्रिपातना (मन, वाणी और काया का अथवा देह, आयु और इन्द्रिय रूप प्राणों से जीव का पतन कराने से इसे 'त्रितापना' कहते हैं ), ११ आरम्भ-समारम्भ, १२ आयुः -कर्मणउपद्रव, भेदनिष्ठापन गालना तथा संवर्तकसंक्षेप (आयुकर्म का उपद्रव या उसी का भेद या उस आयु का अन्त करना और आयु को गालना, खुटाना, आयु को संक्षेप करना), १३ मृत्युः १४ असंयम, १५ कटक-मर्दन, १६ व्युपरमणम् (प्राणों से जीव के अलग करने के कारण यह व्युपरमण कहलाता है), १७ परभवसंक्रमकारक, १८ दुर्गति प्रपातः, १९ पाप-कोप, २० पाप लोभ, २१ छविच्छेद, २२ जीवितान्तकरण, २३ भयङ्कर, २४ ऋणकर, २५ वर्ण्य, २६ परितापनाश्रव, २७ विनाश, २८ निर्यापना, २९. लोपना, ३० गुणों की विराधना । इस प्रकार इस पाप-रूप प्राणबध के कटु फल बताने वाले तीस नाम कहे गये हैं। तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं, तंजहा–अलियं १, सदं २, अणज्जं ३, मायामोसो ४, असंतकं ५, कूडकवउमवत्थुगं च ६, निरत्थयमवत्थयं च ७, विहेसगरहणिज्ज ८, अणुज्जुकं ६, कक्कणाय १०, वंचणाय ११, मिच्छापच्छाकडं च १२, साती उ १३, उच्छन्नं १४, उक्कूलं च १५, अहं १६, अब्भक्खाणं च १७, किब्बिसं १८, वलयं १६, गहणं च २०, मम्मणं च २१, नूम २२, निययी २३, अप्पच्चा श्रो २४, असमश्रो २५, असच्चसंधत्तणं २६, विवक्खो २७, श्रवहीयं २८, उवहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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