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( ३२ ) है।' गुरु ने उत्तर दिया-“एक बिन्धु के इतना पढ़ा है और अभी समुद्र-परिमाण पढ़ना शेष है।'' बाद में महाप्राण-व्रत समाप्त होने तक आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को दो वस्तु कम दश पूर्व तक पढ़ाया।
एक बार भद्रबाहु स्वामी विहार करते हुए पाटलिपुत्र नगर के बाहर उद्यान में पधारे । आचार्य महाराज के आगमन का समाचार सुनकर स्थूलभद्र की बहिन यक्षादि साध्वियाँ उन्हें वंदन करने पायी । गुरु महाराज का वंदन करके उन साध्वियों ने पूछा-“हे प्रभो ! स्थूलभद्र कहाँ हैं ?'' गुरु ने उत्तर दिया-"निकट के जीर्ण देवकुल में हैं।" वे साध्वियाँ देवकुल में गयीं । उन्हें आता देखकर स्थूलभद्र ने सिंह का रूप धारण कर लिया। सिंह देखकर भीत साध्वियाँ गुरु के पास गयीं और उन्होंने सारी बातें उनसे कहीं। आचार्य ने कहा-“वह तुम्हारा ज्येष्ठ भाई है। उसका वंदन करो। वह सिंह नहीं है।"
उसके बाद जब स्थूलभद्र गुरु के पास गये तो गुरु ने कहा"तुम वाचना के लिए अयोग्य हो।" और, उन्होंने वाचना नहीं दी। स्थूलभद्र ने क्षमा माँगी, पर जब तब भी भद्रबाहु तैयार न हुए तो स्थूलभद्र ने गुरु से अनुरोध करने के लिए श्रीसंघ से आग्रह किया । श्रीसंघ के कहने से भद्रबाहु ने शेष पूर्व मूल-मूल पढ़ाये और यह आदेश दिया कि, इनको किसी को 'न पढ़ाना ।
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