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इस पर संघ
मुनियों ने जाकर यह उत्तर श्रीसंघ से कहा । ने दो अन्य साधुओं को आदेश दिया - "तुम लोग जाकर आचार्य से कहो - " जो श्रीसंघ की आज्ञा न माने उसे क्या दंड दिया जाये ?" इस पर यदि भद्रबाहु स्वामी कहें कि - " उसे संघ से बाहर कर देना चाहिए," तो कहना - " आप स्वयं उस दंड के भागी हैं ।" उन मुनियों ने जाकर तद्रूप सभी बातें कहीं । सुनकर भद्रबाहु स्वामी ने कहा- “मेरे व्रत को ध्यान में रखकर श्रीमान संघ बुद्धिमान शिष्यों को यहीं भेज दे तो अच्छा । मैं उन्हें प्रतिदिन सात वाचनाएं दूँगा । एक वाचना भिक्षाचर्या से लौट कर तीनं वाचनाएं तीसरे प्रहर और संध्या समय प्रतिक्रमण के पश्चात् तीन वाचनाएँ दूंगा । इस प्रकार मेरी व्रत-साधना में वाधा भी न आयेगी और श्रीसंघ का भी काम हो जायेगा ।" श्रीसंघ ने स्थूलभद्र के साथ पाँच सौ साधु नेपाल भेजे । आचार्य उनको वाचना देने लगे । 'वाचना बहुत कम मिलती है,' इस विचार से उद्वेग पाकर वे सब साधु लौट गये । एक स्थूलभद्र मात्र बचे रहे । महामति स्थूलभद्र ने आचार्य भद्रबाहु के पास आठ वर्षो में आठ पूर्व सम्पूर्ण रीति से पढ़े । एक दिन आचार्य ने उनसे कहा - "हे वत्स ! तुम हतोत्साह क्यों हो गये ?” स्थूलभद्र ने उत्तर दिया- "हे भगवंत ! मैं हतोत्साहित तो नहीं हूँ, पर मुझे वाचना अत्यल्प लगती हैं ।" इस पर आचार्य ने कहा - " मेरा ध्यान लगभग पूरा होने को आया है । उसे समाप्त होने पर मैं तुम्हें यथेच्छ वाचना दूँगा ।" इस पर स्थूलभद्र ने पूछा - " हे प्रभो ! अभी मुझे कितना पढ़ना शेष
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